महेश दर्पण

हिन्दी अकादमी द्वारा ‘साहित्यकार सम्मान’, ‘कृति पुरस्कार’, ‘नेताजी सुभाषचंद्र बोस सम्मान’, ‘सी.एल. नेपाली पत्रकारिता सम्मान’, ‘पीपुल्स विक्ट्री पत्रकारिता सम्मान’, ‘सार्थक पत्रकारिता सम्मान’ प्राप्त। अब तक पांच कहानी संग्रह, एक आलोचना, एक साक्षात्कार, तीन बाल एवं प्रौढ़ साहित्य की पुस्तकें तथा बारह खण्डों में ‘बीसवीं शताब्दी की हिन्दी कहानियां’ सहित ‘स्वातंत्रयोत्तर हिन्दी कहानी कोश’ और सात अन्य पुस्तकें सम्पादित। सम्प्रतिः टाइम्स ऑफ इण्डिया प्रकाशन समूह के दैनिक सान्ध्य टाइम्स के सम्पादकीय विभाग में।

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पीताम्बर देवरानी

शिक्षक से प्रधानाचार्य 1960 में। शिलोटी, मटियाली, देवीखेत, डीडीहाट, देवाल में प्रधानाचार्य रहने के बाद सहायक निदेशक (शिक्षा) बने लेकिन नये पद पर गये नहीं।स्थानीय विषयों-लोक साहित्य तथा शिक्षा पर अनेक लेख।‘कर्मभूमि’ का संपादन- 1986-88। ‘सत्यपथ’ का संपादन- 1988-94 तक।‘पर्वतजन’ से भी जुड़ा रहा।

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कबूतरी देवी

लोकगीतों तथा संगीत की जानकार। कुछेक कैसेट्स बने हैं। रेडियो तथा टीवी के लिये भी गाया। वर्तमान पता : ग्राम-क्वीतड़, ब्लॉक मूनाकोट, जिला-पिथौरागढ़। युवाओं के नाम संदेशः अपने गीत- संगीत को कभी न छोड़ें।

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धर्मेश तिवारी

दिल्ली युवा महोत्सव में स्वर्ण पदक (1967)। रेडियो (सैनिक मनोरंजन प्रभाग) में कार्य किया। 1972 में मुंबई दूरदर्शन में। अजनबी धरावाहिक का लेखन। दर्जनों धरावाहिकों व फिल्मों में काम किया और चर्चित हुआ महाभारत के कृपाचार्य बनकर। फिल्म निर्देशन में भी हाथ आजमाया। मुम्बई में सिने जगत के कलाकारों की संस्था के सचिव।

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ज्वाला दत्त तिवारी

डिप्टी डिविजनल वार्डन, सिविल डिफेंस। सिविल डिफेंस के कार्यों के दौरान पदक से सम्मानित। सह सचिव, नेहरू बाल समिति, दिल्ली। उत्तरांचल की विभिन्न संस्थाओं से सम्बद्ध। डिप्टी डायरेक्टर, विजिलेंस, श्रम मंत्रालय (वसूली अधिकारी) .डी. आर. टी., वित्त मंत्रालय।

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गिरीश तिवारी ‘गिर्दा’

आजीविका चलाने के लिए क्लर्क से लेकर वर्कचार्जी तक का काम करना पड़ा। फिर संस्कृति और सृजन के संयोग ने कुछ अलग करने की लालसा पैदा की। अभिलाषा पूरी हुई जब हिमालय और पर्वतीय क्षेत्र की लोक संस्कृति से सम्बद्ध कुछ करने का अवसर मिला। प्रमुख नाटक, जो निर्देशित किये- ‘अन्धायुग’, ‘अंधेरी नगरी’, ‘थैंक्यू मिस्टर ग्लाड’, ‘भारत दुर्दशा’। ‘नगाड़े खामोश हैं’ तथा ‘धनुष यज्ञ’ नाटकों का लेखन किया। कुमाउँनी-हिन्दी की ढेर सारी रचनाएँ लिखीं । गिर्दा ‘शिखरों के स्वर’ (1969), ‘हमारी कविता के आँखर’ (1978) के सह लेखक तथा ‘रंग डारि दियो हो अलबेलिन में’ (1999) के संपादक हैं तथा ‘उत्तराखण्ड काव्य’ (2002) के रचनाकार हैं। ‘झूसिया दमाई’ पर उन्होंने अपने सहयोगियों के साथ एक अत्यन्त महत्वपूर्ण संकलन-अध्ययन किया है। उत्तराखण्ड के कतिपय आन्दोलनों में हिस्सेदारी की। कुछेक बार गिरफ्तारी भी हुई।

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