नीला कुरिंजी

blue-kurinji-munnar-2006 दोस्तो, बताओ तो जरा फूल कब खिलते हैं? साल भर? चलो मान लिया साल भर खिलते हैं। लेकिन, कौन-सा फूल कब खिलता है? कुछ फूल गर्मियों में खिलते हैं, कुछ वर्षा ऋतु में, कुछ सर्दियों में और बहुत सारे फूल वसंत ऋतु में। ठीक है?

लेकिन, एक फूल ऐसा भी है जो 12 वर्ष बाद खिलता है। सन् 2006 में वह दक्षिण भारत के कोडइकनाल, नीलगिरी, अन्नामलाई और पलनी की पहाड़ियों में 12 वर्ष बाद खिला। अगस्त से दिसंबर तक तमिलनाडु में क्लावररई से केरल में मुन्नार के पास वट्टावडा तक चारों ओर उसकी बहार छा गई। इस पौधे में पिछले 150 वर्षों में केवल तेरहवीं बार फूल खिले थे!

दोस्तो, उस नीले-बैंगनी फूल का नाम हैः नीला कुरिंजी। जब वह खिलता है, उसकी बहार आती है तो पूरे पहाड़ ऐसे लगते हैं जैसे उनमें नीले-बैंगनी रंग के गलीचे बिछा दिए गए हों। पहले वहां पूरी पर्वतमालाएं उसके नीले-बैंगनी फूलों से नीली दिखाई देने लगती थीं। इसी कारण नीलगिरि पर्वतमाला का नाम नीलगिरि पड़ गया।

नीला कुरिंजी प्राचीनकाल से ही दक्षिण भारत में उगता आ रहा है। पश्चिमी घाट की पहाड़ियों में हर बारहवें साल इसकी नीली बहार आती है। नीला कुरिंजी की बहार देख कर तमिल कवियों ने सुंदर कविताएं रचीं। ‘तमिल संगम’ की तमाम प्राचीन कविताओं में नीला कुरिंजी का गुणगान किया गया है। उनमें एक राजा की प्रशंसा करते हुए यह लिखा गया है कि वह राजा उस राज्य में राज करता था, जहां नीला कुरिंजी का शहद खूब होता था! दक्षिण भारत के उस पर्वतीय प्रदेश को नीला कुरिंजी प्रदेश कहा जाता था। वहां के आदिवासी ‘मुरूगन’ देवता की पूजा करते थे। उनका मानना था कि जब मुरूगन ने आदिवासी वधू ‘वल्ली’ से विवाह रचाया तो उन्होंने नीला कुरिंजी की वरमाला पहनी थी। और हां, तमिलनाडु के वलपराई और केरल में मन्नार के बीच की पहाड़ियों में ‘मुडुवर’ जनजाति के लोग रहते हैं। वे अपनी उम्र का हिसाब नीला कुरिंजी के खिलने से जोड़ते है। यानी, नीलाकुरिंजी जितनी बार खिला, उतनी उनकी उम्र!

सन् 1836 में अंग्रेज वनस्पति विज्ञानी राबर्ट वाइट पलनी पर्वमाला में पहुंचा। वहां उसने इस नीले-बैंगनी फूल की बहार देखी तो देखता ही रह गया। उसने नीला कुरिंजी के बारे में लिखा। तब उस क्षेत्र से बाहर के लोगों को इस पौधे के बारे में पता चला। एक और वनस्पति विज्ञानी कैप्टन बेडोम ने भी सन् 1857 में कुरिंजी के बारे में काफी लिखा।

कोडइकनाल के कैथोलिक पादरियों ने भी कुरिंजी के खिलने का रिकार्ड रखा। नीलगिरि की पहाड़ियों में सन् 1858 से नीला कुरिंजी के खिलने की पूरी जानकारी है। यह जानकारी वहां कोटागिरि में बसे कॉकबर्ने नामक निवासी की दादी ने स्थानीय कोटा और टोडा लोगों से पूछ-पूछ कर लिखी थी। neel-kurinji

दोस्तो, अपनी बहार से पूरे पहाड़ों को किसी कैनवस की तरह नीले-बैंगनी रंग में रंग देने वाले इस झाड़ीदार पौधे का वैज्ञानिक नाम हैः स्ट्रोबाइलेंथीज कुंथियाना। इस पौधे के वंश में लगभग 200 जातियां पाई जाती हैं। इन सभी जातियों के पौधे एशिया में ही पाए जाते हैं। इनमें से करीब 150 जातियां भारत में पाई जाती हैंे। पश्चिती घाट, नीलगिरि और कोडइकनाल में करीब 30 जातियां उगती हैं। इस पौधे की कुछ जातियां हर साल खिलती हैं। लेकिन, कई जातियां कई साल के अंतर पर खिलती हैं। नीला कुरिंजी 12 साल में एक बार खिलता है।

पहाड़ों में नीला कुरिंजी के पौधे करीब 30 से 60 से.मी. ऊंचे होते हैं। लेकिन, अनुकूल दशाओं में 180 से.मी. तक भी ऊंचे हो जाते हैं। चमकीले नीले बैंगनी फूल घंटियों की तरह दिखाई देते हैं। बारह साल बाद जब ये खिलते हैं तो पहाड़ों, ढलानों और घाटियों में नीली बहार आ जाती है। केरल में इडुक्की जिले में अनाइमुडी की चोटी दक्षिण भारत की सबसे ऊंची चोटी है। उसके चारों ओर का क्षेत्र इराविकुलम कहलाता है। यह राष्ट्रीय पार्क है और नीला कुरिंजी का संरक्षित क्षेत्र है। उसी जिले के देवीकुलम तालुके में 32 कि.मी. क्षेत्र में कुरिंजीमाला संरक्षित क्षेत्र बनाया गया है।

लेकिन, पिछले 100 वर्षों में दक्षिण भारत की पहाड़ियों पर यह मनोहारी नीला रंग धीरे-धीरे काफी कम हो गया है। नीला कुरिंजी के पौधे कम हो गए हैं। जानते हो, क्यों? क्योंकि जंगलों को काट कर चाय बागान बनाए गए, इलायची की खेती की गई। और, वहां अनजाने पेड़ लगाए गए जैसे युकिलिप्टिस, अकेसिया। ऊपर से जंगल की आग। उसने नीला कुरिंजी के पौधों को बुरी तरह जलाया।

दोस्तो, नीला कुरिंजी को बचाने के लिए अब कई तरह के प्रयास किए जा रहे हैं। ‘कुरिंजी बचाओ’ अभियान शुरू किया गया है। बैंक में काम करने वाले राजकुमार ने तिरूअनंतपुरम में ‘कुरिंजी बचाओ अभियान परिषद्’ बनाई है। ‘कुरिंजी बचाओ’ अभियान में वन और वन्य जीव विभाग, पर्यटन विभाग, गैर सरकारी संस्थाएं और तमाम लोग भाग ले रहे हैं। ये लोग हर साल कोडइकनाल से मुन्नार तक की पैदल यात्रा करते हैं। नीला कुरिंजी की रक्षा के लिए जंगलों की आग को रोकने के प्रयास किए जा रहे हैं। कोडइकनाल की पहाड़ियों में इसके और अधिक पौधे लगाने की योजना बनाई गई है।

stamp-on-blue-kurinji पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए सन् 2006 में केरल में ‘नीला कुरिंजी उत्सव’ मनाया गया। इसमें केरल सरकार के पर्यटन विभाग, वन और वन्य जीव विभाग तथा कई अन्य विभागों ने भाग लिया। दोस्तो पुडिचेरी के सालिम अली इकोलॉजी स्कूल में नीला कुरिंजी पर वैज्ञानिक खोज रहे हैं। तुम्हें यह जान कर खुशी होगी कि इस प्यारे और निराले नीले-बैंगनी फूल की ओर सबका ध्यान आकर्षित करने के लिए भारत सरकार ने एक डाक टिकट भी जारी किया है। इस डाक टिकट को केंद्रीय संचार तथा सूचना प्रौद्योगिकी मंत्री दयानिधि मारन ने 29 मई 2006 को जारी किया। यह डाक टिकट ‘जानिए भारतीय डाक टिकटों के जरिए प्रकृति के रहस्य’ योजना के तहत जारी किया गया।

अब एक मजेदार बात सुनो। जब मैं छोटा था। आठवीं कक्षा में पढ़ता था। ओखलकांडा में मैंने अपने स्कूल की पहाड़ी पर चारों ओर खिले जोंणला के फूल देखे थे। सुंदर नीले-बैंगनी फूल। फूल ही फूल। उस साल मधुमक्खियों के झुंड के झुंड आ गए थे। उन्होंने तमाम पेड़ों की टहनियों और मकानों की छतों पर अपने छत्ते बना लिए। हजारों मधुमक्खियां blue-kurinji जोंणला के फूलों का शहद जमा कर रही थीं। मैं इतने फूल और इतनी मधुमक्खियां देख कर हैरान था। पूछने पर पता चला, 12 वर्ष बाद जोंणला खिले हैं! बड़ी कक्षाओं में वनस्पति विज्ञान पढ़ा। तब पता लगा कि जोंणला तो ‘नीला कुरिंजी’ का ही बिरादर है। कहां दक्षिण का केरल और तमिलनाडु और कहां उत्तर में कुमाऊं-गढ़वाल की पहाड़ियां। लेकिन, स्ट्रोबाइलंथीज वंश के पौधे यहां भी पाए जाते हैं। अंग्रेज वन अधिकारी ए.ई. ओस्मास्टन ने सन् 1922 में कुमाऊं-गढ़वाल के पेड़-पौधों पर किताब लिखी। उसमें इस पौधे की आठ जातियों के बारे में बताया गया है। इनमें से स्ट्रोबाइलेंथीज वॉलशाइ जाति के पौधे 12 साल बाद खिलते हैं। गढ़वाल में यह जिमला या जानू और नैनीताल के कुछ भागों में जोंणला कहलाता है। लेकिन, अब तो चीड़ के उन जंगलों में न जाने जोंणला के कितने पौधे बचे हैं।

देखा दोस्तो, इस पौधे ने कैसे उत्तर और दक्षिण दोनों को जोड़ दिया है। भले ही बारह साल बाद खिलता है जोंणला या नीला कुरिंजी, लेकिन जब खिलता है तो खुशी से सबके चेहरे खिल जाते हैं।

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One Thought to “नीला कुरिंजी”

  1. dr suresh pant

    सच है, तमिल साहित्य और संस्कृति में ‘कुरिन्जिप्पू’ का बड़ा महत्व है. कुमाऊँ में इसके होने की एक पुष्टि वहाँ, खासकर पिथोरागढ़ अंचल में, सातूँ-आठूँ के अवसर पर गए जानेवाले लोकगीत से होती है.इसमें इसे ‘कुकुडी-माकुडी’ का फूल कहा गया है और इसे बारहवें वर्ष फूलने वाला कहा गया है. तमिल भाषा, साहित्य और संस्कृति की अनेक बातें कुमाऊँ में हैं जो सामान्यतः आश्चर्यजनक लगती हैं, पर यह शोधार्थियों के लिए रोचक विषय बंनती हैं. इस पर, विशेषकर भाषिक साम्य मेरे कुछ लेख प्रकाशित भी हैं और एक मुलाक़ात में जब मैंने सुप्रसिद्ध भाषावैज्ञानिक स्व. डी. डी. शर्मा जी से इन भाषिक- सांस्कृतिक समानताओं की चर्चा की तो उन्होंने कुछ और साम्यों का उल्लेख किया था .

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