एक थीं गौरा देवी: एक माँ के बहाने चिपको आन्दोलन की याद

प्रस्तुति : शेखर पाठक

[डा. शेखर पाठक जी को हमारे पाठक उनके अस्कोट-आराकोट अभियान और उनके साक्षात्कार के माध्यम से जानते है। वह पहाड़ संस्था के संस्थापक सद्स्यों में से एक हैं। हाल ही में उनका चिपको आंदोलन की प्रणेता गौरा देवी पर लिखा लेख रविवारी जनसत्ता में छ्पा था। उसी लेख (असंपादित) को हम अपने पाठकों के लिये अपना उत्तराखंड में प्रस्तुत कर रहे हैं। आज प्रस्तुत है पहला भाग। – प्रबंधक ]

जनवरी 1974 में जब अस्कोट-आराकोट अभियान की रूपरेखा तैयार हुई थी, तो हमारे मन में सबसे ज्यादा कौतूहल चिपको आन्दोलन और उसके कार्यकर्ताओं के बारे में जानने का था। 1973 के मध्य से जब अल्मोड़ा में विश्वविद्यालय स्थापना, पानी के संकट तथा जागेश्वर मूर्ति चोरी सम्बन्धी आन्दोलन चल रहे थे; गोपेश्वर, मंडल और फाटा की दिल्ली-लखनऊ के अखबारों के जरिये पहुँचने वाली खबरें छात्र युवाओं को आन्दोलित करती थीं लेकिन तब न तो विस्तार से जानकारी मिलती थी, न ही उस क्षेत्र में हमारे कोई सम्पर्क थे। हम लोग कुमाऊँ के सर्वोदयी कार्यकर्ताओं को भी नहीं जानते थे। सरला बहन का जिक्र सुना भर था, भेंट उनसे भी नहीं थी। हममें से अनेक भावुक युवा इस हलचल से एक गौरव-सा महसूस करते थे पर प्रेरणा के स्रोतों के बावत ज्यादा जानते न थे। तब सिर्फ सुन्दरलाल बहुगुणा, कुंवर प्रसून तथा प्रताप शिखर से शमशेर बिष्ट और मेरी मुलाकात हुई थी।

Prasoon, Shekhar Pathak, Pratap Sikhar and Shamsher Bisht during Askot-Aarakot-Abhiyan1974

1974 के अस्कोट आराकोट अभियान के समय हमारी मुलाकात चमोली के चिपको कार्यकर्ताओं में शिशुपाल सिंह कुँवर तथा केदार सिंह रावत से ही हो पाई थी। अगले 10 सालों में हम लोग उत्तराखण्ड के छोटे-बड़े आन्दोलनों से जुड़े किसी व्यक्ति से अपरिचित नहीं रहे, पर किसी से अगर प्रत्यक्ष मुलाकात नहीं हो सकी तो वह रैणी की गौरा देवी थीं। दसौली ग्राम स्वराज्य संघ द्वारा आयोजित चिपको पर्यावरण शिविरों में भी उनसे मिलने का मौका नहीं मिला। 1984 के अस्कोट-आराकोट अभियान के समय उनसे मुलाकात हो सकी और यह मुलाकात हमारे मन से कभी उतरी नहीं।

गौरा शिखर पर 12 जून 1984 को कुँवारी पास को पार करते हुए जब हम- गोविन्द पन्त ‘राजू’, कमल जोशी और मैं उड़ते हुए से ढाक तपोवन पहुँचे थे तो गौरा देवी एक पर्वत शिखर की तरह हमारे मन में थीं कि उन तक पहुँचना है। ढाक तपोवन में चिपको आन्दोलन के कर्मठ कार्यकर्ता हयात सिंह ने हमारे लिये आधार शिविर का काम किया। उन्होंने 1970 की अलकनन्दा बाढ़ से चिपको आन्दोलन और उसके बाद का का हाल आशा और उदासी के मिले-जुले स्वर में बताया।

13 जून 1984 को हम तीनों और पौखाल के रमेश गैरोला तपोवन-मलारी मोटर मार्ग में चलने लगे। कुछ आगे से नन्दादेवी अभयारण्य से आ रही ऋषिगंगा तथा नीती, ऊँटाधूरा तथा जयन्ती धूरा से आ रही धौली नदी का संगम ऋषिप्रयाग नजर आया। ऋषिगंगा के आर-पार दो मुख्य गाँव हैं- रैंणी वल्ला और रैणी पल्ला। आस-पास और भी गाँव हैं। जैसे- पैंग, वनचैरा, मुरुन्डा, जुवाग्वाड़, जुगसू आदि। ये सभी ग्रामसभा रैंणी के अन्तर्गत हैं। कुछ आगे लाटा गाँव है। इनमें ज्यादातर राणा या रावत जाति के तोल्छा (भोटिया) रहते हैं। लगभग 150 मवासे और 500 की जनसंख्या। ऋषि गंगा-धौली गंगा संगम के पास एक ऊँची दीवार की तरह बैठी साद (मलवा) इन नदियों के नाजुक जलग्रहण क्षेत्रों का मिजाज बताती थी। गौरा देवी का गाँव रैंणी वल्ला है।

आगे बढ़े तो राशन के दुकानदार रामसिंह रावत ने आवाज लगाई कि किस रैणी जाना है? ‘गौरा देवी जी से मिलना है’ सुनकर उन्होंने बताया कि वे ऊपर रहती हैं। एक लड़का पल्ला रैणी भेजकर हमने सभापति गबरसिंह रावत से भी बैठक में आने का आग्रह कर लिया। सेब, खुबानी और आड़ू के पेड़ों के अगल-बगल से कुछेक घरों के आँगनों से होकर हम सभी, जो अब 10-15 हो गए थे, गौरा देवी के आँगन में पहुँचे। मुझे तवाघाट (जिला पिथौरागढ) के ऊपर बसे खेला गाँव की याद एकाएक आई। संगम के ऊपर वैसी ही उदासी और आरपार फैली हुई अत्यन्त कमजोर भूगर्भिक संरचना नजर आई।

गौरा देवी अस्कोट अभियन 84 के दौरान अपने घर में @PAHAR

 

छोटा-सा लिन्टर वाला मकान। लिन्टर की सीढ़ियाँ उतरकर एक माँ आँगन में आई। वह गौरा देवी ही थीं। हम सबका प्रणाम उन्होंने बहुत ही आत्मीय मुस्कान के साथ स्वीकार किया, जैसे प्रवास से बेटे घर आये हों। हम सब उन्हें ऐसे देख रहे थे जैसे कोई मिथक एकाएक यथार्थ हो गया हो। वही मुद्रा जो वर्षों पहले अनुपम मिश्र द्वारा खींची फोटो में देखी थी। कानों में मुनड़े, सिर पर मुन्याणा (शॉल) रखा हुआ, गले में मूँग की माला, काला आँगड़ा और गाँती, चाबियों का लटकता गुच्छा और कपड़ों में लगी चाँदी की आलपिन। गेहुएँ रंग वाले चेहरे में फैली मुस्कान और कभी-कभार नजर आता ऊपर की पंक्ति के टूटे दाँत का खाली स्थान। अत्यधिक मातृत्व वाला चेहरा। स्वर भी बहुत आत्मीय, साथ ही अधिकारपूर्ण।

तो गौरा देवी कोई पर्वत शिखर नहीं, एक प्यारी-सी पहाड़ी माँ थीं। वे इन्तजाम में लग गईं। जब उनको रमेश ने बताया कि पांगू से अस्कोट, मुनस्यारी, कर्मी, बदियाकोट, बलाण, रामणी, कुंवारीखाल तथा ढाक तपोवन हो कर पहुंचे हैं ये लोग, तो वे हमें गौर से देख के कहने लगीं कि यह तो दिल्ली से भी ज्यादा दूर हुआ! तख्त पर अपने हाथ से बना कालीन बिछाया। हम सभी को बिठाया। बात करने का कोई संकेत नहीं। गोविन्द तथा कमल इस बीच हमारे अभियान, चिपको आन्दोलन, पहाड़ों के हालात तथा नशाबन्दी आदि पर बातें करने लगे तो वे सभा की तैयारी में लग गईं। इधर-उधर बच्चे दौड़ाये। महिला मंगल दल के सदस्यों को बुला भेजा। फलों और चाय के बाद खाने की तैयारी भी होने लगी। हमने बताया कि हम खाकर आये हैं तो कुछ नाश्ता बनने लगा। हमने बातचीत के लिए आग्रह किया। बातचीत के बीच ही महिलाओं-पुरुषों का इकट्ठा होना शुरू हो गया।

अपनी जिन्दगी वे बताने लगीं कि कितना कठिन है यहाँ का जीवन और फिर कुछ समय के लिए वे अपनी ही जिन्दगी में डूब गईं। यह अपनी जिन्दगी के मार्फत वहाँ की आम महिलाओं तथा अपने समाज से हमारा परिचय कराना भी था।

गौरा देवी लाता गाँव में जन्मी थीं, जो नन्दादेवी अभयारण्य के मार्ग का अन्तिम गाँव है। उन्होंने अपनी उम्र 59 वर्ष बताई। इस हिसाब से वे 1925 में जन्मी हो सकती हैं। 12 साल की उम्र में रैंणी के नैनसिंह तथा हीरादेवी के बेटे मेहरबान सिंह से उनका विवाह हुआ। पशुपालन, ऊनी कारोबार और संक्षिप्त-सी खेती थी उनकी। रैणी भोटिया (तोल्छा) लोगों का बारोमासी (साल भर आबाद रहने वाला) गाँव था। भारत-तिब्बत व्यापार के खुले होने के कारण दूरस्थ होने के बावजूद रैणी मुख्य धारा से कटा हुआ नहीं था और तिजारत का कुछ न कुछ लाभ यह गाँव भी पाता रहा था।

जब गौरा देवी 22 साल की थीं और एकमात्र छोटा बेटा चन्द्रसिंह लगभग ढाई साल का, तब उनके पति का देहान्त हो गया। जनजातीय समाज में भी विधवा को कितनी ही विडम्बनाओं में जीना पड़ता है। गौरा देवी ने भी संकट झेले। हल जोतने के लिए किसी और पुरुष की खुशामद से लेकर नन्हें बेटे और बूढ़े सास-ससुर की देख-रेख तक हर काम उन्हें करना होता था। फिर सास-ससुर भी चल बसे। गौरा माँ ने बेटे चन्द्र सिंह को अपने पैरों पर खड़ा होने लायक बना दिया। इस समय तक तिब्बत व्यापार बन्द हो चुका था। जोशीमठ से आगे सड़क आने लगी थी। सेना तथा भारत तिब्बत सीमा पुलिस का यहां आगमन हो गया था। स्थानीय अर्थ व्यवस्था का पारम्परिक ताना बाना तो ध्वस्त हो ही गया था, कम शिक्षा के कारण आरक्षण का लाभ भी नहीं मिल पा रहा था। चन्द्रसिंह ने खेती, ऊनी कारोबार, मजदूरी और छोटी-मोटी ठेकेदारी के जरिये अपना जीवन संघर्ष जारी रखा। इसी बीच गौरा देवी की बहू भी आ गई और फिर नाती-पोते हो गये। परिवार से बाहर गाँव के कामों में शिरकत का मौका जब भी मिला उसे उन्होंने निभाया। बाद में महिला मंगल दल की अध्यक्षा भी वे बनीं।

…….अगले भाग में जारी

शेखर पाठक, संपादक पहाड़, ‘परिक्रमा’, तल्ला डांडा, तल्लीताल, नैनीताल-263002

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