ऐसे अनपढ़ चाहिये पहाड़ को

एक थीं गौरा देवी: एक माँ के बहाने चिपको आन्दोलन की याद – 4

[पिछ्ले भागों में आपने पढ़ा कि किस प्रकार शेखर पाठक जी अपने साथियों के साथ गौरा देवी से मिले , कैसे हुई चिपको की शुरुआत और क्या हुआ चिपको आंदोलन के बाद ,आज जानते है कि कैसे चिपको आंदोलन को कुछ लोगों ने हथिया लिया। प्रस्तुत है लेख की अंतिम किश्त। ]

गौरा देवी अपने जीवन के अन्तिम वर्षों में गुर्दे और पेशाब की बीमारी से परेशान रहीं। पक्षाघात भी हुआ। पर किसी से उन्हें मदद नहीं मिली या बहुत कम मिली। यह अवश्य सोचनीय है। य़द्यपि चंडी प्रसाद भट्ट खबर मिलते ही गौरादेवी की मृत्यु के दो सप्ताह पहले उनसे मिलने जोशीमठ गये थे, जहां तब गौरादेवी का इलाज चल रहा था। 4 जुलाई 1991 की सुबह तपोवन में गौरादेवी की मृत्यु हुई। इसी तरह की स्थिति चिपको आन्दोलन के पुराने कार्यकर्ता केदार सिंह रावत की असमय मृत्यु के बाद उनके परिवार के साथ भी हुई थी। सुदेशा देवी तथा धनश्याम शैलानी को भी कम कष्ट नहीं झेलने पड़े थे। आखिर किसी को आन्दोलनों में शामिल होने का मूल्य तो नहीं दिया जा रहा था। यह काम चिपको संगठन का था। जब वह खुद फैला और गहराया नहीं, मजबूत तथा एक नहीं रह सका, तब ऐसी मानवीय स्थितियों से निपटने का तरीका कैसे विकसित होता ? पर अपने अपने स्तर पर संवेदना और संगठन बने भी रहे।

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चिपको की महिलाओं को और गौरा देवी को पढ़े-लिखे लोग ‘अनपढ़’ कहते हैं। यह कोई नहीं बताता कि पढ़े-लिखे होने का क्या अभिप्राय है ? क्या स्कूल न जा पाने के कारण वे ‘अनपढ़’ कहलाएँ ? क्या अपने परिवेश को समझ चुकीं और उसकी सुरक्षा हेतु प्रतिरोध की अनिवार्यता सिद्व कर चुकीं महिलाएँ किसी मायने में अनपढ़ हैं ? क्या वे स्कूल-कालेजों की पढ़ी होतीं तो ऐसे निर्णय लेतीं ? गौरा देवी की बात करते हुए कोई उन सच्चाइयों को नहीं देखता जो स्वतः दिखाई देती हैं और जिनसे उनका कद और ऊँचा हो जाता है।

12 साल की उम्र में गौरा देवी का विवाह हो गया था और वे 22 साल में विधवा हो गईं थीं। सिर्फ 10 साल का वैवाहिक जीवन रहा उनका! एक पहाड़ी विधवा के सारे संकट उन्हें झेलने पड़े पर इन्हीं संकटों ने उनके भीतर निर्णय लेने की क्षमता विकसित की। वे गाँव के कामों में दिलचस्पी रखने वाली गाँव की बुजुर्ग महिलाओं में एक थीं। एक नैसर्गिक नेतृत्व का गुण उनमें था, जो कठिन परिस्थितियों में निखरता गया। अतः 26 मार्च 1974 को जो उन्होंने किया उसे वे कैसे नहीं करतीं ? यह बहुत सहज प्रक्रिया थी। यही नही वे बद्रीनाथ मन्दिर बचाओ अभियान में सक्रिय रही थीं और पर्यावरण शिविरों में भी।

चिपको आन्दोलन ने यदि उन सभी व्यक्तियों, समूहों को अपने साथ बनाये रखा होता, जो इसकी रचना प्रक्रिया बढ़ाने में योगदान देते रहे थे, तो न सिर्फ गौरा देवी की बल्कि चिपको आन्दोलन की प्रेरणा ज्यादा फैलती और खुद गौरा देवी का गाँव उन परिवर्तनों को अंगीकार करता जो उसके लिए जरूरी हैं। कोई भी आन्दोलन सिर्फ एक जंगल को कटने से बचा ले जाय पर गाँव की मूलभूत जरूरतों को टाल जाय या किसी तरह के आर्थिक क्रिया-कलाप विकसित न करे तो टूटन होगी ही। आखिर हरेक व्यक्ति बुद्ध की तरह तो सड़क में नहीं आया है।

चिपको की और गौरा देवी की असली परम्परा को आखिर कौन बनाये रखेंगे ? देश-विदेश में घूमने वाले चिपको नेता-कार्यकर्ता ? या चिपको पर अधूरे और झूठे ‘शोध’ पत्र पढ़ने वाले विशेषज्ञ ? या अभी भी अनिर्णय के चौराहे पर खड़ा जंगलात विभाग ? या इधर-उधर से पर्याप्त धन लेकर ‘जनबल’ बढ़ाने वाली संस्थाएँ ? नहीं, कदापि नहीं।

susheela-bhandari-in-jailचिपको को सबसे ज्यादा वे स्थितियाँ बनाये रखेंगी जो बदली नहीं हैं और मौजूदा राजनीति जिन्हें बदलने का प्रयास करने नहीं जा रही है। स्वयं गौरादेवी का परिवेश तरह तरह से नष्ट किया जा रहा है। ऋषि गंगा तथा धौली घाटी में जिस तरह जंगलों पर दबाव है; जिस तरह जल विद्युत परियोजनाओं के नाम पर पूरी घाटी तहस नहस की जा चुकी है और नन्दादेवी नेशनल पार्क में ग्रामीणों के अधिकार लील लिये गये है; मन्दाकिनी घाटी में विद्युत परियोजना के विरोध में संघर्षरत सुशीला भंडारी को दो माह तक जेल में रखा गया; गंगाधर नौटियाल को गिरफ्तार किया गया और पिंडर, गोरी घाटी तथा अन्यत्र जन सुनवाई नहीं होने दी गई; उससे हम एक समाज और सरकार के रूप में न सिर्फ कृतघ्न सिद्ध हो गये हैं बल्कि पर्वतवासी का सामान्य गुस्सा भी प्रकट नहीं कर सके हैं। वहां के ग्रामीण अवश्य अभी भी आत्म समर्पण से इन्कार कर रहे हैं। रैणी तथा फाटा जैसे चिपको आन्दोलन के पुराने संघर्ष स्थानों पर सबसे जटिल स्थिति बना दी गई है।

इसलिए उत्तराखण्ड के गाँवों में अपने हक-हकूक बचाने के, अपने पहाड़ों को बनाये रखने के जो ईमानदार प्रतिरोध होंगे वे ही संगठित होकर चिपको की परम्परा को आगे बढ़ायेंगे। किसी आन्दोलन का सबसे बड़ा दुर्भाग्य उसका जनता की नजरों से गिरना है। चिपको आन्दोलन भी किंचित इसका शिकार हुआ है। उत्तराखण्ड की सामाजिक शक्तियाँ और वर्तमान उदासी का परिदृश्य शायद चिपको को रूपान्तरित होकर पुनः प्रकट होने में मदद देगा। यह उम्मीद सिर्फ इसलिये है कि हमारे समाज और पर्यावरण के विरोधाभाश अपनी जगह पर हैं और चिपको की अधिकांश टहनियां अभी भी हरी हैं। उनमें रचना और संघर्ष के फूल खिलने चाहिये।

Same article as published in JanSatta

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शेखर पाठक, संपादक पहाड़, ‘परिक्रमा’, तल्ला डांडा, तल्लीताल, नैनीताल-263002

पिछ्ले भाग

1. एक थीं गौरा देवी: एक माँ के बहाने चिपको आन्दोलन की याद – 1

2. एक थीं गौरा देवी: एक माँ के बहाने चिपको आन्दोलन की याद – 2

3. एक थीं गौरा देवी: एक माँ के बहाने चिपको आन्दोलन की याद – 3

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6 Thoughts to “ऐसे अनपढ़ चाहिये पहाड़ को”

  1. jagdish

    gora devi ki tulana laxmibai se karani chahiye.

  2. anu

    This is a unique movement by a Uttrakhandi.

  3. sanju

    hanji ye baat sach hai

  4. सच गौरा देवी सबके लिए एक आदर्श है ..ऐसे ही लोग बिना किसी लाभ के समाज को वह सब दे जाते हैं जो पढ़े-लिखे लोग नहीं दे पाते है ..कुछ कर पाते हैं ..
    संग्रहनीय प्रस्तुति के लिए बहुत बहुत आभार..

  5. dhansingh ghariya

    ek aisa aandolankari chayey jo logo ko ahsas dilay sake

  6. jagdish joshi

    bhulaii nahi ja sakti ye khani..parnam h inke charno mai .

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