उत्तराखण्ड के विकास में उत्प्रेरक बन सकती हैं रेल परियोजनाएं – लेखक हेम पंत
कहने को तो देश में जनतन्त्र है, अर्थात जनता का राज, लेकिन आम-जनमानस की तर्कपूर्ण और ज़ायज मांगों को देश के नेता नजरअंदाज़ करते रहे हैं। उत्तराखण्ड की जनता द्वारा पहाड़ों में रेलमार्ग बनाये जाने की मांग लम्बे समय से की जाती रही है लेकिन केन्द्र सरकार में बैठे लोग उत्तराखण्ड के दुर्गम पहा क्षेत्रों को रेलमार्ग से जोड़ने में कोई रुचि नहीं दिखाते हैं। अब जबकि कश्मीर और उत्तरपूर्व के कई हिस्से रेलमार्ग से जुड़ गये हैं तब लगभग समान भौगोलिक स्थिति वाले इलाकों में रहने वाले उत्तराखण्ड के पर्वतीय लोग भी इस क्षेत्र को रेलमार्ग से जोड़ने की मांग मनवाने के लिये अपना आन्दोलन पर उतारू हैं.
रोजगार के साधनों की कमी व सीमित कृषि उपज के कारण इस क्षेत्र के लोग लम्बे समय से मैदानों की ओर पलायन करने के लिये मजबूर रहे हैं। सीमान्त क्षेत्र के लोगों के काफी संख्या में पलायन करने के कारण अनेक गांव खाली हो चुके हैं।
उत्तराखण्ड के कुल 13 जिलों में से 11 जिलों में पहाड़ी इलाके में है। यह जिले उद्योग-शून्य, कृषि क्षेत्र में पिछड़े हैं लेकिन खनिज संपदा, प्राकृतिक सौन्दर्य, वन संपदा व औषधीय वनस्पतियों से परिपूर्ण हैं। अगर इन सभी वस्तुओं का सुव्यवस्थित तरीके से सुनियोजित दोहन किया जाये तो उत्तराखण्ड भी भारत के सर्वाधिक विकसित प्रदेशों में अपनी उपस्थिति दर्ज करा सकता है। नैनीताल और मंसूरी जैसे कुछ हिल-स्टेशन जिन्हें अंग्रेज विकसित कर गये थे, उन्हीं को स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद की सरकारों ने बढ़ावा दिया, जबकि हिमालय की तलहटी में अनेक ऐसे स्थान हैं जो नैनीताल और मंसूरी को प्राकृतिक सौन्दर्य में कहीं पीछे छोङ सकते हैं। इन दुर्गम स्थानों को विकसित करने के लिये सुगम यातायात अतिआवश्यक है। इस समय भी उत्तराखण्ड में ट्रैकिंग, राफ़्टिंग, सफारी और तीर्थयात्रा आदि के लिये लगभग एक करोड़ लोग पर्यटक प्रतिवर्ष आते हैं, यदि नये पर्यटक स्थल और सुगम रेलयात्रा का प्रबन्ध हो जाय तो यह संख्या आने वाले समय में कई गुना बढ सकती है।
उत्तराखण्ड के पहाड़ी इलाकों में सड़कों के रखरखाव पर सालाना करोड़ों की धनराशि खर्च करने पर भी सड़कों की स्थिति बहुत दयनीय है। इन सड़कों पर भीषण दुर्घटनाएं अक्सर होती रहती हैं। हर साल सैकड़ों लोग इन हादसों में अपनी जान गंवाते हैं। यहां आने वाले पर्यटक और तीर्थयात्री पहाड़ों की लाजवाब प्राकृतिक छटा के साथ ही इन कष्टदाई सड़कों को भी नहीं भुला पाते। सामरिक दृष्टि से भी इस पहा इलाके को रेलमार्ग से जोड़ा जाना अत्यन्त जरूरी है।
उत्तराखंड का पहाड़ी क्षेत्र चीन, नेपाल और तिब्बत की सीमा से सटा है, चीन भारतीय सीमा के बहुत करीब तक रेलमार्ग व वायुमार्ग से अपनी पहुंच को सुगम बनाने में सफलता प्राप्त कर चुका है। आध्यात्मिक दृष्टि से अतिमहत्वपूर्ण कैलाश पर्वत की यात्रा के लिये भी अगले साल तक चीन हवाई यात्रा शुरु करने की योजना बना चुका है। जबकि भारत की तरफ़ से मानसरोवर की यात्रा करने वाले लोगों को लगभग 20 दिन की पैदल यात्रा करनी पङती है. भारत सरकार को शीघ्र ही इस विषय को गंभीरता से लेना होगा अन्यथा आने वाले समय में चीन इस अन्तर्राष्ट्रीय सीमा पर कठिनाइयां पैदा कर सकता है।
वर्तमान में उत्तराखण्ड के कुमाऊं मण्डल के काठगोदाम, रामनगर तथा टनकपुर व गढ़वाल मण्डल के कोटद्वार व ऋषिकेश तक ही रेलमार्ग पहुंचे हैं। यह सभी स्टेशन मैदानी इलाकों के अन्तिम छोर पर हैं, अर्थात पहाड़ों में एक किमी का भी रेलमार्ग नही है। आश्चर्यजनक बात यह है कि वर्तमान में पहाड़ में जो भी रेललाइनें हैं उनका निर्माण आज से लगभग 70-80 साल पहले ब्रिटिश शासन काल में ही हो चुका था। स्वतन्त्र भारत में उत्तराखण्ड के पहाड़ी क्षेत्र में रेल पहुंचाने की कोशिश के अन्तर्गत एक मीटर भी रेल लाइन नहीं बिछ पाई है.
टनकपुर – बागेश्वर रेललाइन का सर्वे 1912 में ही हो चुका था पुन: 2006 में इस मार्ग का सर्वे करवाया गया है। वर्ष 1960-70 के दशक में पद्मश्री देवकी नंदन पांडे जी के द्वारा पहाड़ों में रेलमार्ग बनाये जाने की मांग पहली बार उठाई गई उसके बाद अब कई संघर्ष समितियां इस मुद्दे पर सड़क से लेकर संसद तक हर मंच पर इस मांग को उठा चुकी हैं लेकिन कोरे आश्वासनों के सिवा कुछ हाथ में नहीं आया है। बागेश्वर-टनकपुर रेलमार्ग संघर्ष समिति के सदस्य जन्तर-मन्तर में दो बार आमरण अनशन कर चुके हैं लेकिन उन्हे तत्कालीन प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह तथा तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गांधी के आश्वासनों से ही सन्तोष करना पड़ा। लोकसभा चुनावों के बाद पुन: इस आन्दोलन में तेजी आने की सम्भावना है।
उत्तराखण्ड की जनता मुख्यत: (1) टनकपुर से बागेश्वर (2) ऋषिकेश से कर्णप्रयाग (3) टनकपुर से जौलजीबी व (4) रामनगर से चौखुटिया तक रेलमार्ग बनाने के लिये संघर्षरत है. एक चौंकाने वाला तथ्य यह है कि इन मार्गों के निर्माण की योजनाएं भी ब्रिटिश शासन काल में ही बन चुकी थी और बाकायदा सर्वे भी पूरे कर लिये गये थे. प्रस्तावित टनकपुर-बागेश्वर रेलवे लाईन के मार्ग में धौलीगंगा, टनकपुर और पंचेश्वर जैसी वृहद विद्युत परियोजनायें चल रही हैं। इसके अतिरिक्त इस रेलमार्ग के बनने से मार्ग में पड़ने वाले अत्यन्त दुर्गम और पिछड़े इलाके यथा बागेश्वर के कत्यूर, दानपुर, कमस्यार, खरही अल्मोड़ा के रीठागाड़ और चौगर्खा, पिथौरागढ के घाट, गणाई और गंगोल और चम्पावत के गुमदेश और पंचेश्वर इलाके के लगभग दस लाख लोग इस सुगम परिवहन से जुड़ सकेंगे। कुछ समय पहले कौसानी प्रवास के दौरान रेलमंत्री लालू यादव जी ने ऋषिकेश-कर्णप्रयाग व टनकपुर-बागेश्वर मार्ग का नया सर्वे कराने की बात कहकर पहाड़ के लोगों के मन में कुछ आशा जगाई थी। कुमाऊं विश्वविद्यालय नैनीताल के डा. जी.एल. साह ने टनकपुर से बागेश्वर तक तीन माह के अथक परिश्रम के बाद भूगर्भीय सर्वेक्षण करते हुए एक रिपोर्ट रेल मंत्रालय को भेजी थी। इस सर्वे में कंप्यूटर, उपग्रह चित्र व भौतिक सर्वेक्षणों को आधार बनाया गया था। लेकिन पिछ्ली यूपीए सरकार के अन्तिम रेलबजट में प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह तथा सोनिया गांधी के आश्वासनों के बावजूद इन योजनाओं के लिये कोई बजट आबंटित नही किया गया, इन योजनाओं का उनके भाषण में कुछ उल्लेख भी नहीं था. इससे उत्तराखण्ड की जनता को भारी निराशा हुई.
ऋषिकेश -कर्णप्रयाग रेलमार्ग बनने पर गढवाल मण्डल के पहाड़ी जिलों में उद्योग धंधों व पर्यटन के विकास से भारी संख्या में रोजगार के साधन पैदा होने की आशा की जा रही है। इस मार्ग के बनने पर गंगोत्री-यमुनोत्री-बद्रीनाथ-केदारनाथ की महत्वपूर्ण चारधाम तीर्थयात्रा बहुत सुगम हो जायेगी। उत्तराखण्ड की स्थाई राजधानी के लिए प्रस्तावित गैरसैंण भी प्रस्तावित ऋषिकेश-कर्णप्रयाग रेलमार्ग से सिर्फ 50 किमी की दूरी पर है। अब रेलवे बोर्ड ने ऋषिकेश-कर्णप्रयाग को "इकोनोमिकली फीजीबल" न मानते हुए इस योजना से अपने हाथ खींच लिये हैं। अगर प्रदेश सरकार रेलवे को 50% धन (कम से कम 1000 करोड़) दे तो रेलवे बोर्ड इस योजना पर काम करने को राजी है, लेकिन इतनी बड़ी धनराशि की व्यवस्था करना इस नवनिर्मित राज्य की सरकार के लिये शायद ही संभव होगा।
टनकपुर से बागेश्वर तक की प्रस्तावित योजना में कुल 137 किलोमीटर लम्बी रेल लाइन बिछाई जानी है, जिसमें से 67 कि०मी० लाइन अंतराष्ट्रीय सीमा (भारत-नेपाल) के समानान्तर बननी है और पंचेश्वर के बाद यह रेलमार्ग सरयू नदी के समानान्तर बनना है। इस रेल लाइन के बिछाने पर विस्थापन भी नहीं के बराबर होना है क्योंकि महाकाली और सरयू दोनों नदियां घाटियों में बहती हैं, यह घाटियां भौगोलिक स्थिति से काफी मजबूत हैं। इस प्रस्तावित योजना में सिर्फ चार बड़े रेल पुलों का निर्माण करने की जरूरत पड़ेगी। पर्वतीय रेल व सड़क योजनाओं में मुख्य तकनीकी पक्ष ऊंचाई ही है, लेकिन इस लाइन को टनकपुर (समुद्र तल से ऊंचाई 800 मीटर) से बागेश्वर तक पहुंचने में 137 कि०मी० की दूरी में मात्र 610 मीटर की ऊंचाई ही पार करनी होगी। अन्य पर्वतीय रेल योजनाओं की ऊंचाई से इस प्रस्तावित रेललाइन की तुलना की जाये तो अभी कालका से शिमला तक से 98 कि०मी० की दूरी तय करने में 1433 मीटर की ऊंचाई पार करनी पड़ती है। इससे स्पष्ट है कि तकनीकी रूप से भी टनकपुर से बागेश्वर रेलमार्ग का निर्माण करना इस युग में कोई दुष्कर कार्य नहीं है।
यह बात तो रही उत्तराखण्ड के पहाड़ी इलाकों में प्रस्तावित नये रेलमार्गों की, उत्तराखण्ड के मैदानी भाग, जहां तक वर्तमान में रेल सुविधा उपलब्ध है उसमें भी बढती जरुरतों के अनुसार उच्चीकरण और नई सेवाओं की सख्त आवश्यकता है। वर्तमान में टनकपुर छोटी लाइन से जुड़ा है और सिर्फ लखनऊ और बरेली के लिये ही यहां से यातायात उपलब्ध है। टनकपुर को ब्रॉड गेज की लाइन से जोड़कर देहरादून व दिल्ली के लिये रेलसेवा शुरु करने पर इस क्षेत्र के लाखों लोगों को फायदा मिल सकता है। देहरादून, रामनगर, ऋषिकेश, कोटद्वार और काठगोदाम को भी डबल लाइन से जोङने की मांग जनता द्वारा लम्बे समय से की जा रही है। हल्द्वानी-काठगोदाम से मुम्बई के लिये सीधी ट्रेन चलाये जाने की मांग पर भी कोई ठोस कार्यवाही नहीं हो पा रही है।
एक तरफ जब भारत के मुख्य शहरों में लोग मेट्रो ट्रैन में सफर कर रहे हैं और रेलमन्त्री देश में ’बुलेट ट्रैन’ चलाने की बात कह रहे हैं वहीं उत्तराखण्ड के लोगों के लिये रेलयात्रा द्वारा अपने क्षेत्रों में पहुंचना एक सपना ही रह गया है, एक ऐसा सपना जो लगभग 100 साल पहले अंग्रेजों ने दिखाया था। देश आजाद हुआ, जिसमें उत्तराखण्ड के लोगों ने भी कुर्बानी दी थी और उम्मीद थी कि पहाड़ी इलाकों में रहने वाले सामान्य जनमानस के संघर्ष भरे दिन खत्म होंगे, लेकिन इन्तजार का यह अन्तहीन सिलसिला शायद तभी खत्म होगा जब वोटों की राजनीति से ऊपर उठ कर इस देश के नीतिनियंता महानगरों और "अपने" राज्यों से कुछ क्षण के लिये नजरें हटा कर पहाङ के लोगों को भी देखेंगे जो खुद को उपेक्षित महसूस करने लगे हैं. वरना…. वही जुलूस, धरना, प्रदर्शन, नारेबाजी और अनशन!!!!
atyant mahatvapoorna jaankari aur rochak aalekh k liye
HARDIK BADHAI
कुछ टेक्निकल चीजें –
टनकपुर से बागेश्वर तक की इस प्रस्तावित योजना की लम्बाई १३७ किलोमीटर है, जिसमें से ६७ कि०मी० लाईन अंतराष्ट्रीय सीमा (भारत-नेपाल) के समानान्तर है और पंचेश्वर से यह योजना सरयू नदी के समानान्तर है। इस कारण इस योजना में कोई सामाजिक विस्थापन भी नहीं होना है, क्योंकि महाकाली और सरयू नदी दोनों भ्रंश घाटियों में बहती हैं। यह घाटियां भौगोलिक स्थिति से काफी मजबूत हैं, इसके अतिरिक्त इस प्रस्तावित योजना में चार बड़े रेल पुलों का निर्माण होना है और इनकी चौड़ाई भी मैदानी क्षेत्रों की तुलना में अत्यन्त कम होगी।
पर्वतीय योजनाओं में मुख्य रुप से तकनीकी पक्ष मात्र ऊंचाई ही है, लेकिन इस लाईन को टनकपुर (समुद्र तल से ऊंचाई ८०० मीटर) से बागेश्वर तक पहुंचने में ६१० मीटर की ऊंचाई को पार करना होगा। अन्य पर्वतीय रेल योजनाओं की ऊंचाई की तुलना की जाय तो कालका से शिमला तक से ९८ कि०मी० की दूरी तय करने में १४३३ मीटर की ऊंचाई पार करनी पड़्ती है जब कि इस योजना में १३७ कि०मी० में मात्र ६१० मीटर की ही ऊंचाई को पार करनी पड़ेगी। इसके अतिरिक्त कांगड़ा और कश्मीर की तुलना में और ऊंचाई पार करनी पड़्ती है।
बहुत सुंदर…..आपके इस सुंदर से चिटठे के साथ आपका ब्लाग जगत में स्वागत है…..आशा है , आप अपनी प्रतिभा से हिन्दी चिटठा जगत को समृद्ध करने और हिन्दी पाठको को ज्ञान बांटने के साथ साथ खुद भी सफलता प्राप्त करेंगे …..हमारी शुभकामनाएं आपके साथ हैं।
पंत जी
धन्यवाद काफ़ी महत्व्पूर्ण जानकारी आपने दी।
पर फ़िर मैं एक बात कहना चाहता हूं कि पहाड़ पर रेलमार्ग बन पाना वर्तमान परिस्थितियों में केवल एक नारा ही हो सकता है। पंत जी तो उस क्षेत्र से ही हैं, वर्तमान में जब टनकपुर से पिथौरागढ़ की सड़क ही वर्षभर चालू नही रह पाती तो वहां रेल क्या चल पायेगी। वर्तमान में मैदानी क्षेत्रों में रेल को सरपट दौड़ाने की प्राथमिकता होनी चाहिये नाकि पहाड़ी लोगों की भावानाओं से खिलवाड़। पहले ही इस राज्य निर्माण के समय इस प्रदेश की पहाड़ी जनता के साथ बहुत मजाक हो चुका है। मेरा इस आन्दोलन के प्रमुख श्री गुसाईं जी से कहना है कि वो केवल एक क्षेत्र विशेष के बारे में ना सोचकर प्रदेश के व्यापक हित में सोचें। मेरा बागेश्वर, रुद्र्प्रयाग रेल ले जाने से विरोध नही है मेरा कहना है कि हमे आधारभूत बातों को भी ध्यान देना होगा। प्रदेश में मैदान के रेल नेटवर्क को मजबूत किया जाना ज्यादा जरूरी है। मै एक बात दावे से कह सकता हूं कि इन रेलमार्गों को अगर बना भी दिया गया तो इससे प्रदेश के आवागमन में कोई क्रान्ति नही आने वाली है और नाही यह सड़क आवागमन का विकल्प हो सकता है। हमारे देश में कही भी पहाड़ों पर रेलमार्ग सड़कों का विकल्प नही है। अगर इस प्रदेश में कोई रेलमार्ग सबसे ज्यादा फ़ायदेमन्द हो सकता है तो वह रायवाला से कोटद्वार, कालागड़ होते हुये रामनगर तक का हो सकता है जिसमें पर्यावरण मंत्रालय से अनापत्ति के अलावा कोई बाधा नही है और इसे बाद में विकासनगर और टनकपुर तक विस्तारित कर फ़िर पहाड़ों पर भी रेल ले जाने के बारे में सोचा जाना चाहिये। मेरे विचार से टनकपुर – बागेश्वर और ऋषिकेश – रुद्रप्रयाग की तरह ही रामनगर से चौखुटिया-गैरसैण तक भी रेलमार्ग बनाया जा सकता है। पर हमारी वर्तमान प्राथमिकता हमारे मैदानी रेल नेटवर्क को मजबूत करने की होनी चाहिये। उसके साथ ही अगर पहाड़ पर भी रेल चढ़ जाये तो फ़िर तो यह इस पहाड़ की जनता के लिये सच्चे अर्थो में एक पहाड़ी राज्य नी परिकल्पना के अनूरूप एक उपहार की तरह होगा।
क्या ठीक लीखा पन्त जी ने,