हमार गोरू-बाछ और चिंगोरे हुए हाथ..

[देवेन्द्र मेवाड़ी जी द्वारा उनके गांवों के किस्से हमें सुनते रहे हैं। उनकी तुंगनाथ यात्रा का रोचक वर्णन भी काफी लोगों ने पसंद किया। उनके श्यूँ बाघ के किस्से श्यूँ बाघ, देबुआ और प्यारा सेतुआ…., ओ पार के टिकराम और ए पार की पारभती, चिलम की चिसकाटी व बकरी चोर, श्यूं बाघ व नेपाली ‘जंग बहादुर’ , अब कहां रहे वैसे श्यूं-बाघ भी आप पढ़ चुके हैं। आज वह लेकर आये हैं गांव के गोरु बाछों की कहानी। : प्रबंधक]

hamar-gou-bachhगर्मियों में गेहूं कटने के बाद हम उन खेतों और आसपास की खाली जमीनों में या फिर चिनाड़ व पाल् गध्यार ले जाकर गाय-भैसें चराते थे। गर्मियों में स्कूल की छुट्टियां होने पर दिन भर गाय-भैसों के साथ रहते थे। मैं, जैंतुवा और पनुदा अपनी-अपनी गाय-भैसों के साथ जाते थे। हाथ में होता था तेज दात जिससे टहनियां वगैरह काटते थे। सुबह थान पर से खोलने के बाद सभी गाय-भैंसें अपनी मुखिया भैंस के पीछे-पीछे लाइन बना कर चल पड़ती थीं। आगे से फूल, फिर भूरी, बचुली, गुजरी। उनके पीछे बीनू, गोधनी गाय। अगर जुताई में नहीं हुए तो गुजारा और सेतुवा बल्द (बैल) भी। उनके बीच में चलते हुए हम टेल देते रहते…आहिएss लेss! ले गुजारा, ले! अगर कोई जानवर उल्टा-सीधा चलता या आगे-पीछे सींग मारता तो कड़क कर डांटते, “गो ss ध…नी, अच्छा जाग धैं!” और, वह तिरछी आंख से देख कर, शैतानी कर रहे बच्चे की तरह लाइन में लग जाती, जैसे कह रही हो-कहां? मैंने तो कुछ नहीं किया!

उन्हें पता होता था कि उन्हें कहां जाना है या फिर वे हमारे इशारे और हमारी टेल समझ कर चरते-चरते आगे बढ़ती रहतीं। सड़क ही सड़क चिनाड़। वहां वे पानी पीतीं। वहां से पलि धार और फिर पाल् गध्यार। वहां खूब पेड़-पौधे और हरी-भरी झाड़ियां होती थीं। बांज, रंयांज, उदीस, खर्सू, लोध, अंयार, तुष्यार आदि पेड़-पौधों के साथ-साथ किरमोड़ा, घिंगारू, घंटी की झाड़ियां और कई तरह की बेलें भी होती थीं। गधेरे के किनारे-किनारे लिंगुड़े उगते थे। पेड़ों-झाड़ियों के आसपास यहां-वहां हरी घास उगी रहती। गोरू-भैंसें मन लगा कर चरतीं और थक जाने पर पेड़ों की छाया में बैठ कर जुगाली करने लगतीं।

buffaloवहां कभी-कभी पास के गलनी गांव से भी गाय-भैंसें चरने के लिए आ जाती थीं। एक बार जैंतुवा ने चौंक कर कहा, “ददा देखो, उन भैंसों को देखो।” मैंने देखा, काली भैंसों के पेट पर खड़िया से लिखा थाः ‘आर ए टी’ रैट और ‘सी ए टी’ कैट। मैं समझ गया, वे ललित की भैंसें थीं जो उन दिनों छठी कक्षा में अंगे्रजी पढ़ रहा था।

हम गधेरे के पास बड़े पत्थर के उड्यार (गुफा) के भीतर बैठ कर खेलते रहते या फिर किसी पेड़ पर चढ़ जाते, या उसकी छाया में बैठ जाते। झाड़ियों के नीचे घुस कर भी बैठे बातें करते रहते। हमारी बातें कभी खतम ही नहीं होती थीं। उस उड्यार में तो जैंतुवा, पनुदा, गोपाल और मैंने हलुवा और लिंगुड़ों का साग भी पकाया था। हम खाने लायक और विषैले लिंगुड़ों को अच्छी तरह पहचान लेते थे। तीते, विषैले लिंगुड़े थोड़ा पतले होते थे। उन पर भूरे बाल भी खूब होते थे। खाने वाले लिंगुड़े उनसे मोटे और मुलायम होते थे। यह तो बहुत बाद में पता लगा कि उन्हें फर्न कहते हैं। विषैले लिंगुड़ों को गोरू-भैंसें भी नहीं चरती थीं। चैत में तो यह भी ध्यान रखना पड़ता था कि गोरू-भैस अंयार के नए चिपचिपे पत्ते न चर जाएं। उनमें विष होता था।

थकी-मांदी गोरू-भैंसें जब आंख मूंद कर जुगाली करतीं तो सिटौले (मैनाएं) उनके शरीर की सफाई में जुट जाते। कोई सिटौला पीठ पर तो कोई गर्दन पर बैठा चोंच से जूं और किलनी पकड़ रहा होता। कोई सींग पर बैठ कर रोडियो ss रोडियो ss चुर्र ss चुर्र ss चहक रहा होता। गोरू-भैसों और सिटौलों में बड़ी दोस्ती थी। सिटौले मुंह के ऊपर भी बैठ जाते थे। भैंसें उठ कर चलने लगतीं तो कोई-कोई सिटौला थोड़ी देर सिर या पीठ में बैठ कर भैंस की शानदार सवारी भी कर लेता।

गेहूं काटने से पहले चैत-बैशाख में गोरू-भैंस चराने जाते तो किरमोड़ों की बड़ी-बड़ी घनी झाड़ियां पीले फूलों से भरी रहतीं। धूप में उनके तिमुखे कांटों और कंटीली पत्तियों से बचते हुए सरक कर उनके नीचे बैठ जाते। कभी-कभी वर्षा के झौंके आ जाने पर किरमोड़े की पीली पंखुड़ियां झाड़ियों के नीचे बिखर जातीं। लगता, झाड़ियों के नीचे किसी ने पिसी हुई हल्दी बिखेर दी है। लेकिन, जेठ-बैसाख में उन्हीं झाड़ियों से हम जैसे हाथ-मुंह में नीली स्याही चपोड़ कर घर लौटते। उन दिनों किरमोड़े की झाड़ियां छोटे-छोटे पके हुए नीले फलों से लद जातीं और हम मुट्ठियां भर-भर कर किरमोड़े खाते। उनके रंग से दांत, जीभ, होंठ सब नीले पड़ जाते। किरमोड़े तोड़ कर जेब में या थैलियों में भर लेते। किरमोड़े खाने और जेबें भरने की भाग-दौड़ में पैरों में कांटे खूब चुभ जाते थे जिन्हें हम घिंघारू या किरमोड़े के ही तेज कांटे से निकाल लेते।

hisalu-ki-jhadiकपड़ों और आंग को धधोड़ते थे हिंसालू के कांटे। छोटे और मुड़े हुए। कपड़ों में फंस जाते तो उन्हें निकालना मुश्किल हो जाता था। हिंसालू खाने की पहचान थी-कांटों से चिंगोरे हुए हाथ। फिर भी, जहां हिंसालू के पीले-पीले ‘तोपे’ (फल) दिख जाते, हम कांटों से उलझते, निबटते उन्हें तोड़ ही लेते। मुलायम हिंसालू मुंह में रखते ही बिला जाते। वे किरमोड़ों से पहले पकते थे लेकिन कम होते थे। जेठ-आषाढ़ में हम काले हिंसालू खाने के लिए धूरे के खेतों में भी पहुंच जाते थे।

जब घना हौल घिरने लगता और खूब बरखा बरसने लगती तो कंटीले घिंगारूओं के पौधे भी चटख लाल रंग के छोटे-छोटे फलों से लद जाते। वे ईजा की मूंगे की माला के जैसे दाने लगते थे। लेकिन, घिंगारू देखने में जितने सुंदर लगते थे, खाने में उतने स्वादिष्ट नहीं होते थे। किसी-किसी पौधे के ही घिंगारू खाने लायक होते थे। घिंगारू की जांठी (लाठी) बड़ी मजबूत बनती थी।

[जारी रहेगा…]

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13 Thoughts to “हमार गोरू-बाछ और चिंगोरे हुए हाथ..”

  1. Being with nature so closely is a luck, we residents of cities never have seen or felt.
    What is life? What is enjoyment and satisfaction in life is to be learnt from people who are with NATURE.

  2. jitani tarif karun kam hi pad rahi hai is lekh ke liye.

    mai to mar gaya par meri yaad zinda ho gai.

  3. Acharya KAMLESH KANDPAL

    ya lekh bhote bhal lago..wah

  4. Govind Koranga

    Devendra Ji,

    aapne to gaun ki yaad ekdum re-play kar di hai, bahaut-2 dhaynbaad

  5. yeh lekh mujhe bhi likhna tha but inhone likha he wo hi itna sundar he ki mujhe kuch likhne ki jarurat nahi yeh same mere pe laagu hota he thanks NAMASKAR Jiiiiiiiiiii

  6. आदरणीय देवेन जी,
    आपके यह संस्मरण पढकर मैं भी अपने बचपन में पहुँच गया. कृपया लेखों.के बीच समय अंतराल को कम करने की कोशिश कीजिए… ज्यादा देरी होने पर बैचैनी जैसी होने लगती है.. सादर

  7. yes Dr. jyoti, I am really lucky that i was born in hills, in the lap of the mother nature who groomed me like her other children – the birds, butterflies, wild animals, flowers and the trees. Thanx for reading my writing.

  8. नेगी जी, आभार। आपने हमारे गोरु- बाछों के बारे में पढ़ा। मेरे कानों में तो वे अब भी अड़ाते हैं।

  9. धन्यवाद कांडपालज्यू। आपूंलि म्यर उत्साह बड़ाछ। यक किस्स http://dmewari.merapahad.in में ले पढ़िया, जरूर और बताया कस लागौ।

  10. Aapko bhi dhanyavad koranga ji, aapne hamare goru-bachhon ke bare mein padha. Kuchh aur batein bhi sunaoonga. ‘Aon’ kahte rahiyega.

  11. धन्यवाद जोशी जी, आपने लेख पढ़ कर मेरा उत्साह बढ़ाया है। गोरु-बाछों की बात मैंने लिखी, आपने लिखी एक ही बात है। एक ही तरह से पले-बढ़े ठैरे हम। पढ़ते रहिएगा।

  12. धन्यवाद हेम जी। लेखों के बीच अंतराल कम करूंगा। आप लोगों का प्यार मेरी कलम की स्याही बढ़ाता है जिससे मैं लगातार लिखता रहूंगा। खीम सिंह जी का एक किस्सा पल्ली तरफ ‘मेरी कलम’ में भी चल रहा है। जरा, पढ़िगा तो, धैं कैसा लग रहा है।

  13. नेगी ज्यू, गुजारा-सेतुवा बेचारा गुजारा की जोड़ी के बारे में आपने पढ़ा पशु प्रेम अनुभव किया, धन्यवाद। आपकी भावनाओं ने मेरी भावनाओं को भी सुगबुगा दिया है। कुछ और भी लिखूंगा। और हां, पल्ली तरफ ‘मेरी कलम’ (http://dmewari.merapahad.in) में खीम सिंह जी का किस्सा सुना रहा हूं । जरा सुनिएगा तो…

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