फसलें और त्यौहार

[देवेन्द्र मेवाड़ी जी द्वारा सुनाये गये कई किस्से आप पढ़ चुके हैं हाल ही में उन्होंने गोरु बाछों के बारे में हमार गोरू-बाछ और चिंगोरे हुए हाथ.. , ब्वाँश, बाघ, मूना और “पैजाम उतार पैजाम”…. , बेचारा गुजारा … , गाय-भैंस का ब्याना और बिगौत का खाना.. जैसे किस्से सुनाये। फसलों और त्यौहारों की कहानी का पहला भाग आप पढ़ चुके है। आज प्रस्तुत है दूसरा व अंतिम भाग : प्रबंधक] उधर दक्षिण भारत में फसलों के स्वागत में ‘पोंगल’ का त्योहार मनाया जाता है। नए बर्तन में ताजा दूध…

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त्योहार तुम्हारे, ज्योनार हमारे

[देवेन्द्र मेवाड़ी जी द्वारा सुनाये गये श्यूँ बाघ के किस्से श्यूँ बाघ, देबुआ और प्यारा सेतुआ…., ओ पार के टिकराम और ए पार की पारभती, चिलम की चिसकाटी व बकरी चोर, श्यूं बाघ व नेपाली ‘जंग बहादुर’ , अब कहां रहे वैसे श्यूं-बाघ आप पढ़ चुके हैं। आज वह लेकर आयें है फसलों और त्यौहारों की कहानी  : प्रबंधक] “दोस्तो, तुम त्योहार की खुशियां मना रहे हो। तुम्हारी इस खुशी में हम भी शामिल हैं। हम भी? चौंक गए ना? हम यानी तुम्हारी हरी-भरी प्यारी-प्यारी फसलें! अच्छा, यह बताओ कि…

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गाय-भैंस का ब्याना और बिगौत का खाना..

गाय-भैंस ब्याती तो घर में खुशी का माहौल बन जाता। हम नई पैदा हुई बाछी या थोरी को छूना चाहते। घर वाले कहते, ‘मारेगी गाय!’ गाय बाछी को चाटती रहती। दुबली-पतली बाछी लरबर-लरबर करती, उठती-गिरती। कोई नजदीक जाने लगता तो गाय गुस्से से ‘स्यां ss क’ करती। एक-दो दिन बाद पास आने देती थी। हम धीरे से बछिया या भैंस की थोरी को छूते। कितनी मुलायम लगती थीं वे!

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बेचारा गुजारा …

गोरू-भैंसों को गर्दन पर हमारी अंगुलियों से खुजलाना बहुत अच्छा लगता था। कुछ तो पास आकर खड़ी हो जातीं और गर्दन ऊपर कर देतीं, जैसे कह रही होंµ लो हमारी गर्दन तो खुजला दो! अंगुलियां चलाने या हथेली से सहलाने पर वे गर्दन को वैसे ही ऊपर उठाए रखतीं। वे हमारी हर बात को समझती थीं। हमारी आवाज पहचानती थीं। यहां तक कि पैरों की आवाज भी पहचानती थीं।…

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ब्वाँश, बाघ, मूना और “पैजाम उतार पैजाम”….

दात लेकर मैं ऊपर की ओर दौड़ा। तभी मैंने बाघ को चमकती बिजली की तेजी से नीचे को छलांग लगाते देखा। मैं बकरी के पास पहुंच गया। उसने मुझे देखा तो डर के मारे गला फाड़ कर मिमियाते हुए नीचे की ओर दौड़ लगा दी। वह बकरी नहीं ‘मूना’ (बकरा) था। काले-सफेद रंग का मजबूत और भारी डीलडौल वाला मूना। लंबी दाढ़ी। बाघ ने अपने लिए बकरियों की भीड़ में से सबसे मोटा-ताजा मूना चुना था। …..

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हमार गोरू-बाछ और चिंगोरे हुए हाथ..

गर्मियों में गेहूं कटने के बाद हम उन खेतों और आसपास की खाली जमीनों में या फिर चिनाड़ व पाल् गध्यार ले जाकर गाय-भैसें चराते थे। गर्मियों में स्कूल की छुट्टियां होने पर दिन भर गाय-भैसों के साथ रहते थे। मैं, जैंतुवा और पनुदा अपनी-अपनी गाय-भैसों के साथ जाते थे। हाथ में होता था तेज दात जिससे टहनियां वगैरह काटते थे। सुबह थान पर से खोलने के बाद सभी गाय-भैंसें अपनी मुखिया भैंस के पीछे-पीछे लाइन बना कर चल पड़ती थीं। …

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श्यूँ बाघ, देबुआ और प्यारा सेतुआ….

[पहाड़ों में बाघ और मानव एक साथ रहते आये हैं। इन बाघों को कुकुर बाघ, श्यूँ बाघ के नाम से भी जाना जाता रहा है। कभी कभी बाघ आदमखोर भी हो जाते हैं। नरेन्द्र सिंह नेगी जी ने "सुमा हे निहोणिया सुमा डांडा ना जा"  गीत में भी इसी तरह की एक घटना का जिक्र किया है। देवेन्द्र मेवाड़ी जी अपने गांवों के किस्से हमें सुनाते रहे हैं। हाल ही में उनकी तुंगनाथ यात्रा का रोचक वर्णन भी काफी लोगों ने पसंद किया। आजकल वह हमें अपने गांव के श्यूँ…

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