उनके भी हैं अंदाजे़ बयां और…

nightingale अपनी बात दूसरों को समझाने के लिए हम क्या कुछ नहीं करते! बोलते हैं, आवाज देते हैं, मुख मुद्राएं बदलते हैं, शरीर की भाव-भंगिमाएं बनाते हैं, स्वागत  करने के लिए गले लगाते हैं, हाथ मिलाते हैं, और विदा करने के लिए हाथ हिलाते हैं। यानी, येन-केन प्रकारेण अपनी बात दूसरों को समझा देते हैं। लेकिन, इस विशाल दुनिया में केवल हम ही तो नहीं हैं, हमारे लाखों हमसफर भी हमारे साथ इसी दुनिया में जीवन का सफर तय कर रहे हैं। वे कैसे समझाते होंगे अपने साथियों को अपनी बात?

हम अक्सर उन्हें ‘मूक प्राणी’ कह कर उनकी बात टाल जाते हैं। मगर वे मूक नहीं हैं। सच मानिए, जिस तरह हम अपनी भाषा, भाव-भंगिमाओं और तमाम तौर-तरीकों से अपनी बात दूसरों को समझा देते हैं, उसी तरह वे भी अपनी बात अपने बच्चों, साथियों और शत्रुओं तक को समझा लेते हैं।

अच्छा बताइए, क्या आपने कभी पशु-पक्षियों की आवाजों को गौर से सुनने की कोशिश की है? कई महीनों से सुबह-सुबह मेरे घर के पास हरसिंगार की शाख पर बैठ कर एक बुलबुल ‘पी…क्वी…क्विह्’! की आवाज देती है। कहीं और बैठी दूसरी बुलबुल जवाब देती है- ‘पी…क्वि…क्विह्!’ न जाने वे क्या बातें करती हैं। एक-दूसरे से क्या कहती हैं? मैनाएं भी आती हैं और ‘चुर्र-चुर्र…रोडियो….रोडियो’ की आवाज में चहचहाती रहती हैं। आसपास बिल्ली को देखते ही आवाज बदल देती हैं-‘शैं क…शैं क’…। कभी आसमान में उड़ते तोतों का झुंड ‘कियांक्…कियांक्’ कहता हुआ तेजी से निकल जाता है। मौलाना अबुल कलाम आजाद ने अहमदनगर के किले के परिदों की अपनी यादों को ताजा करते हुए लिखा है, ‘मगर हिंदुस्तान का आम ज़ौक (रुचि) बुलबुल की नवाओं (गीत) से नहीं, बल्कि कोयल की कूक से ज्यादा आशना (परिचित) है। यहां के परिंदों की शोहरत तोता और मैना के परों से उड़ी और दुनिया के अजायब में शुमार हो गई’… वे याद दिलाते हैं, हिंदुस्तान के सारे पक्षी ही ऐसी मिठास बरसाते हैं, जो ईरानी मिस्री से भी ज्यादा मीठी है…(नारायणदत्त संकलित ‘नवनीत सौरभ’ से) बहुत दिनों से भूरे रंग की सातभाई चिड़ियों की टोली में से संतरी की ड्यूटी पर तैनात एक चिड़िया बालकनी की मुंडेर पर सुबह-शाम को ‘स्वीह्….स्वीह्’ सीटियां देकर अपने साथियों को आगाह करती रहती हैं! और, उधर गौरेया दम्पति हमें देखते ही छत से लटके लैंपशेड के भीतर बनाए घोंसले में अपने चिचियाते चूजों को जोर से ‘चिड़िक्…चिड़िक्’ बोल कर न जाने कैसे चुप करा देती हैं। वे क्या कहती हैं, कौन जाने? खग ही जाने खग की भाषा।

आपने देखा होगा आपका या आपके पड़ोसी का कुत्ता न केवल भौंक कर बल्कि कानों को उठा-गिरा कर, दांत दिखा कर और पूंछ हिला-हिला कर कितना-कुछ कह देता है! बिल्ली पैरों से लिपट कर अपनापन जताती है।

लब्बो-लुबाब यह कि हमारे अलावा भी इस दुनिया में रहने वाले तमाम जीव-जंतु अपनी बात अपने अंदाज में बखूबी कर लेते हैं। मगर हम नहीं जानते कि चिड़ियों ने चहचहा कर क्या बात की, वन्य जीवों ने गुर्रा कर या चीख-चिंघाड़ कर क्या कहा और मुहल्ले के कुत्तों ने भौंक-भौंक कर अथवा गांव-गुरबे के सियारों ने अपने साथियों को हुवां-हुवां कर कौन-सी हिदायतें दीं। किसी नामचीन वैज्ञानिक ने ठीक ही कहा है कि अपने इतने लंबे इतिहास में हम अब तक पशुओं और परिंदों के बोल तक नहीं समझ पाए।

इस दुनिया में रहने वाले तमाम जीव-जंतु अपनी बात अपने अंदाज में बखूबी कर लेते हैं। मगर हम नहीं जानते कि चिड़ियों ने चहचहा कर क्या बात की, वन्य जीवों ने गुर्रा कर या चीख-चिंघाड़ कर क्या कहा और मुहल्ले के कुत्तों ने भौंक-भौंक कर अथवा गांव-गुरबे के सियारों ने अपने साथियों को हुवां-हुवां कर कौन-सी हिदायतें दीं। किसी नामचीन वैज्ञानिक ने ठीक ही कहा है कि अपने इतने लंबे इतिहास में हम अब तक पशुओं और परिंदों के बोल तक नहीं समझ पाए।

उनके बोल हम भले ही अब तक पूरी तरह न समझ पाए हों मगर वैज्ञानिक लंबे अरसे से उनके अंदाजे-बयां को समझने की पुरजोर कोशिश जरूर कर रहे हैं। पशु-पक्षियों की बातचीत के अध्ययन को वे ‘एनिमल कम्युनिकेशन’ या ‘स्पेंसेरोलॉजी’ कहते हैं। वैज्ञानिक अब इस बात को गंभीरता से महसूस कर रहे हैं कि हमें पशु-पक्षियों की बातचीत को समझना होगा तभी हम उनके सुख-दुःख को सही ढंग से समझ सकेंगे।  और, शायद शायर की जुबां में तब कोई कह सके- ‘बुलबुले नाशाद ने, इस तरह फरियाद की/रोते-रोते हिचकियां, बंध गईं सैय्याद की।’ यानी, दुखियारी बुलबुल ने कुछ इस तरह फरियाद की कि बहेलिए की रोते-रोते हिचकियां बंध गईं।

क्या ऐसा हो सकता है? अगर हम उनकी बात समझ सकें तो भला क्यों नहीं हो सकता? कहते हैं, अफ्रीका में उस शिकारी के साथ ऐसा ही तो हुआ था।…

अफ्रीका के किसी घने जंगल में एक शिकारी स्थानीय कबीले के गाइड के साथ जा रहा था। अचानक उसे सामने गोरिल्ला दिखाई दिया। शिकारी ने गोरिल्ले पर बंदूक तान दी। गोरिल्ला अपनी मुट्ठियों से सीना पीटते हुए कुछ बोला। तभी गाइड की नजर तनी हुई बंदूक पर पड़ी। वह चिल्लाया- ”नहीं, उस पर गोली मत चलाइए। गोरिल्ला कह रहा है, उसे मत मारना। वह जा रहा है।” और, गोरिल्ला वहां से चला गया।…गाइड उसकी भाषा समझता था।

यह केवल किस्सा-कहानी नहीं है। गोरिल्ला अपनी भाषा में तो आपस में बात करते ही हैं, उन्हें मनुष्य की भाषा भी सिखाने की कोशिश की गई है। ‘कोको’ का ही उदाहरण ले लीजिए। छब्बीस वर्षीय मादा गोरिल्ला ‘कोको’ ने बोलचाल की अंग्रेजी भाषा के 2,000 शब्द सीख लिए। अपनी इस शब्द सामर्थ्य से कोको अपनी भावनाएं भी व्यक्त करने लगी। उसने एक बिल्ली गोद ले ली। बिल्ली मरी तो उसने बहुत दुःख जताया। ‘कोको’ ने बात बनाना भी सीख लिया और वह अपने ट्यूटर पेनी पेटर्सन के साथ सांकेतिक भाषा में भी बात करने लगी। एक बार कोको से किसी पत्रकार ने पूछा- ‘तुम क्या हो, कोको, प्राणी या व्यक्ति?’ कोको ने जवाब दिया- ‘मैं एक अच्छा गोरिल्ला प्राणी हूं!’ यह बात अलग है कि हर संभव कोशिश के बावजूद कोको का ज्ञान बच्चों के बराबर ही बना रहा। dolphin

बात करने की कला बॉटलनोज डॉल्फिनों को भी सिखाने की कोशिश की गई है। हवाई द्वीपों में स्थित केवालो बेसिन मराइन मैमल लैबोरेटरी में डॉल्फिनों ने 60 शब्दों के साथ-साथ व्याकरण के सामान्य नियम भी सीख लिए। इसलिए वे कई वाक्यों का अर्थ समझने लगीं। उन्होंने ‘आदमी, तैरने का तख्ता, लाओ’ का अर्थ ‘आदमी के पास तैरने का तख्ता लाओ’ समझा और ‘तैरने का तख्ता, आदमी लाओ’  का मतलब लगाया, ‘तैरने के तख्ते के पास आदमी लाओ।’ वे ‘एक साथ’ का अर्थ भी समझ गईं और एक साथ आकर हवा में ऊंची उछाल मारने लगीं।

सन् 1960 के दशक में चर्चित लेखक जॉन लिली ने वर्जिन आइलेंड्स में रह कर मानव और बॉटलनोज डॉल्फिनों के सहजीवन और विचारों के आदान-प्रदान पर अपना प्रसिद्ध प्रयोग किया। लिली ने मनुष्यों और डॉल्फिनों के रहने के लिए आवास बनाया। उसमें मनुष्य और डॉल्फिन साथ-साथ रहे, साथ खाया, खेले-कूदे, बतियाए और सोए।
इस प्रयोग में एक शोधार्थी मार्गरेट सी. होवे ढाई माह तक पीटर नामक डॉल्फिन के साथ बिल्कुल एकांत में रही। मार्गरेट ने देखा, पीटर डॉल्फिन बहुत जल्दी बात का अर्थ समझ लेती है। वह अंग्रेजी में ‘बॉल’ और ‘डॉल’ का फर्क आसानी से समझ गई। जलाशय में रखे दूसरे खिलौनों को भी पहचानने लगी। वह निदेर्शों को समझ कर उनका पालन करने लगी और शब्दों के साथ-साथ वाक्य रचना भी समझने लगी। वह अपनी ‘सीटी’ की भाषा में उत्तर भी देने लगी।

बाद में जॉन लिली ने होनोलुलू, हवाई स्थित डॉल्फिन इंस्टीट्यूट में विशालतम स्तनपोषी प्राणी ह्वेल के गीतों पर भी शोध कार्य किया। ह्वेल न केवल गीत गाती हैं बल्कि उन गीतों को दोहराती भी हैं।

प्रोफेसर आइरीन पेप्परबर्ग ने धूसर रंग के अफ्रीकी तोते ‘एलैक्स’ पर प्रयोग किए। उसे अंग्रेजी में पढ़ाया। जानते हैं, एलैक्स ने क्या-क्या सीख लिया? वह सात रंगों, पांच आकारों और 40 वस्तुओं को पहचानने के साथ-साथ 6 तक गिनती गिनने लगा। उन्होंने उसे हरे रंग की बोतल और हरे रंग का ही हैट दिखा कर पूछा- इन दोनों में क्या चीज समान है? तोते ने बताया- रंग! और, इनमें किस चीज का अंतर है? तोते ने जवाब दिया- आकार का! उसने एक शोधकर्त्ता को गाजर खाते हुए देखा तो पूछा- यह क्या है? इस रंग को क्या कहते हैं? शोधकर्त्ता ने अंग्रेजी में बताया कि वह गाजर खा रहा है और वह नारंगी रंग का है। इस तरह एलैक्स तोते ने अपनी ही जिज्ञासा से ‘कैरेट’ (गाजर) और ‘ऑरेंज’ (नारंगी रंग) शब्द सीख लिए। एलैक्स की निपुणता से यह साबित हुआ है कि सोचना, समझना और सीखना आदमी जैसे बड़े दिमाग वाले प्राणियों की ही खासियत नहीं बल्कि मटर के दाने बराबर दिमाग वाले तोते और शायद उससे भी छोटे आकार के दिमाग वाले जीवों में भी यह क्षमता है।

यह तो हुई गोरिल्ला, डॉल्फिनों, ह्वेल और तोते की मानव की भाषा में, मानव का कहा सीखने और समझने की बात। यानी प्राणियों की दो जातियों के बीच हुई बातचीत। विभिन्न जातियों के बीच इस तरह के विचारों के आदान-प्रदान के तमाम उदाहरण दिखाई देते हैं। गाय-भैंसैं ग्वाले की बात समझती हैं, घोड़े घुड़सवार का इशारा समझ जाते हैं। अपने ही देश की ऐसी खबरें भी पढ़ने को मिली हैं कि लंगूर लुहार के काम में हाथ बंटा रहा है और बंदर दूकानदार के आदेश पर सामान की देखभाल कर रहा है। अकेला भोटिया कुत्ता हजार-हजार भेड़ों के रेवड़ को अनुशासन में रख रहा है।

लेकिन वैज्ञानिकों का कहना है कि मूक माने जाने वाले लाखों जीव-जंतु भी हमारी तरह, मगर अपने अंदाज में आपस में विचारों का आदान-प्रदान करते हैं। मिशिगन विश्वविद्यालय के डॉ. ब्राडौक ने तो यहां तक कहा था कि अगर ये मूक प्राणी आपस में विचारों का आदान-प्रदान नहीं करते तो शायद इनके लिए इस धरती पर जीवित रहना ही मुश्किल हो जाता।
विचारों के आदान-प्रदान से ही प्राणी अपनी जाति और अपने संगी-साथियों को पहचानते हैं। चिड़ियां और समाज बना कर रहने वाले कीड़े-मकोड़े भोजन या दुश्मन आदि की दिशा की जानकारी अपनी विशेष भाषा में अपनी जाति के दूसरे सदस्यों को देते हैं। जीवों में सबसे बड़ी भाषा प्रेम की ही पाई गई है। प्रेम के ही बलबूते पर वे अपनी जाति को आगे बढ़ाते हैं। नर और मादा बच्चों की देखभाल, भोजन और शत्रुओं के बारे में एक दूसरे को बताते हैं। बच्चों को जीवन जीने का पाठ पढ़ाते हैं। धीरे-धीरे बच्चे बड़े होते हैं और वे भी अपनी भाषा सीखते हैं। भाषा विकास करते हैं। हमारी भाषा का भी विकास इसी तरह हुआ है।

जीव-जंतुओं में अपनी बात कहने या विचारों का आदान-प्रदान करने के मुख्य माध्यम हैं :  ध्वनि, दृष्टि, स्पर्श और गंध या रसायन। जिस तरह हम अपने विचारों का आदान-प्रदान ध्वनि के माध्यम से अधिक करते हैं, उसी तरह पशु-पक्षी भी अधिकतर बोल कर ही सुख-दुःख समझते और समझाते हैं। पशु-पक्षी हमारी तरह गले से सुर निकालते हैं। भौगोलिक दशाओं और जाति के अनुसार उनकी बोली भी अलग-अलग होती है।

विचारों के आदान-प्रदान के लिए कुछ प्राणी सिर्फ एक ही ज्ञानेन्द्रिय का उपयोग करते हैं। स्पर्श से ही बहुत कुछ कह दिया जाता है। एक दूसरे को जकड़ कर, पंजों या बाजुओं या पूरे शरीर को आपस में रगड़ कर भी संदेश दिए जाते हैं। मधुमक्खियों के पैरों में इतने संवेदनशील ग्राही होते हैं कि वे खून में बहते हुए कणों तक को अनुभव कर लें। बिल्ली की मूंछें छोटे से छोटे स्पर्श को भी अनुभव कर सकती हैं। cat-with-moustache

बरसात के दिनों में मेंढ़क अपनी टर्र-टर्र की आवाज से प्रणय निवेदन करते हैं। टिड्डे अपने पिछले पैरों से रगड़ कर तेज आवाज पैदा करते हैं। प्रसिद्ध फ्रांसीसी कीट वैज्ञानिक फाब्रे ने मध्य यूरोप में कई वर्षों तक टिड्डे की आवाजें अपने कानों से सुन-सुन कर यह पता लगाया था कि वे कम से कम 400 तरह के संदेश देते हैं। इनमें अधिकांश प्रणय या मिलन के मधुर गीत होते हैं। एक जाति के नर टिड्डों ने चौदह प्रकार के प्रेम गीत गाए।

यूरोपीय झींगुरों (गाइलस कम्पैस्ट्रिस और ग्राइलस बाइमैकुलेटस) के गीतों की लय पैतृक देन होती है। ये सुर केवल एक जीन की बदौलत फूटते हैं। मादा मच्छर के परों की मधुर आवाज को अपने रोएंदार स्पर्श सूत्र (ऐंटिना) से महसूस करके नर मच्छर खिंचा चला आता है। साथियों के संदेश सुनने के लिए पतिंगों के वक्ष, टिड्डों की बगल और झीगुरों के पैरों में प्रकृति ने संवेदशील अंग बना दिए हैं।

पशु-पक्षी सबसे अधिक प्यार के गीत गाते हैं। मोर की ‘मैं आवूं’, ‘मैं आवूं’ और कोयल की ‘कुहू कुहू’ प्रेम के ही गीत हैं। मोर नाच-नाच कर मोरनी को रिझाता है तो कोयल कुहू-कुहू की मधुर आवाज से मादा को बुलाता है। और हां, लोग सोचते हैं कोयल गाती है लेकिन सच्चाई यह है कि कोयल गाता है! कई पक्षियों में गाने का गुण पैत्रक देन के रूप में पीढ़ी-दर-पीढ़ी संतानों को विरासत में मिलता रहता है तो कुछ पैदा होने के बाद माता-पिता से बोली सीखते हैं। भोजन तलाशती मधुमक्खी को मकरंद भरे फूलों की क्यारियां मिल गईं तो वह छत्ते में लौट कर अपने विशेष अंदाज में नाचने लगती है। नाचते-नाचते ही वह अन्य मजदूर मधुमक्खियों को भोजन की दिशा और दूरी समझा देती है। वे अपने विशेष नृत्य से बता देती हैं कि भोजन कहां पर है, कितनी दूर है और कैसा है? वे नाचते-नाचते सूर्य की स्थिति भी बता देती हैं। खास तरह से नाच कर वे यह भी बताती हैं कि छत्ते से पानी का स्रोत कितनी दूर है। पानी से वे अपने छत्ते को ठंडा करती हैं। एक और प्रकार के नाच में वे बताती  हैं कि उनका छत्ता पूरी तरह नष्ट हो गया है, अब छत्ते के लिए नई जगह खोजनी है। वे शायद यह भी बता देती हैं कि नई जगह कब जाना है, किस दिशा में जाना है। कुछ मधुमक्खियां यहीं रूक कर रानी की रक्षा करेंगी और यह भी कि नया छत्ता बना लेंगे तो रानी को ले जाएंगे…

मधुमक्खियों की इस जटिल भाषा से कीट वैज्ञानिक भी हैरान हैं। यह शायद उनकी जन्मजात प्रतिभा है। वे शब्द ज्ञान और संकेत सीखती जाती हैं। मधुमक्खियांं अपनी  बस्ती के सभी सदस्यों को अपनी बात समझा लेती हैं।

आवाज से अपनी बात कहने वाले कई प्राणी ठक-ठक, टक-टक  करके ‘मोर्स कोड’ की तरह भी बात कह लेते हैं। किसी जंगल में आप चुपचाप खड़े हो जाएं तो आपको ऐसी ठक-ठक, टक-टक की आवाजें सुनाई देंगी। बिलों में रहने वाले जीव-जंतु बिल की छत पर सिर टकरा कर ठक-ठक संदेश दे देते हैं तो खरगोश और कंगारू अपने पिछले पैर जमीन पर पटक कर अपने साथियों को संदेश देकर सावधान कर देते हैं। वैज्ञानिकों का कहना है, हाथी अपने बेहद संवेदनशील पैरों के तलुवों से आसपास की आवाजें पकड़ लेते हैं।
अपनी बात कहने के लिए जीव-जंतु गंध यानी रसायनों का भी सहारा लेते हैं। वैज्ञानिकों का कहना है कि यह विचारों के आदान-प्रदान अर्थात् संचार का सबसे पुराना तरीका है। गंध या रसायनों का विकास शायद हॉर्मोनों से हुआ। हॉर्मोन रासायनिक हरकारे हैं और शरीर में जरूरी संदेश पहुंचाते हैं। किसी जीव-जंतु द्वारा जिस गंध या जिन रसायनों से अपने संगी-साथियों को संदेश दिया जाता है, वे ‘फेरोमोन’ कहलाते हैं। ‘फेरोमोन’ रसायनों की सूक्ष्म मात्रा, यहां तक कि चंद अणु भी जब पसीने, पेशाब, गोबर आदि से हवा या पानी में मिल जाते हैं तो संगी-साथियों को दूर-दूर तक उनका पता लग जाता है। हवा या पानी को सूंघने भर से उसकी उपस्थिति मालूम होने के साथ-साथ उसका संदेश भी मिल जाता है, जैसे क्या वह प्रजनन के लिए तैयार है या नहीं?

गंध में मौजूद फेरोमोनों का असर सामान्यतः लंबे अरसे तक रहता है। शेर, बाघ आदि बिल्ली परिवार के कई प्राणियों की मादाएं प्रजनन के लिए मद में आने की सूचना फेरोमोनों की गंध से ही देती हैं। उन्हें पता नहीं होता कि नर उनके आसपास कब आएगा। मादा की गंध काफी समय तक बनी रहने से नर को पता लग जाता है कि आसपास कोई मादा मद में आई हुई है। लेकिन समस्या यह है कि वर्षा और तेज हवा के कारण गंध धीरे-धीरे कम होने लगती है।

जिराफ मादा के मद में आने का पता लगाने के लिए उसे पीछे से टहोका देता रहता है। टहोका देते-देते वह मूत्र त्याग करती है जिसे सूंघ कर जिराफ को मादा के मद में होने या न होने का पता लग जाता है। कई अन्य पशुओं के नर भी पेशाब में फेरोमोन सूंघ कर मादा के मद में आने का पता लगाते हैं।

जीव-जंतु अपने इलाके की सीमा तय करने, शत्रुओं को भगाने या शिकार को आकर्षित करने के लिए भी गंध का उपयोग करते हैं। स्कंक के मलद्वार के पास गंध ग्रंथियां होती हैं। शत्रु के पास आ जाने पर वह उनसे तेज दुर्गंध वाला रसायन छोड़ता है जिसके कारण शत्रु अचकचा कर खड़ा रह जाता है। वह दुर्गंध महीनों तक नहीं जाती।

शार्क मछलियां सूंघकर पानी के भीतर डेढ़ किलोमीटर दूर गिरी रक्त की बूंद तक का पता लगा लेती हैं। सांप अपनी जीभ लपलपा कर हवा में उड़ते गंध कणों का पता लगाते हैं। जीभ पर चिपके गंध कणों को तालू पर लगा लेते हैं जिससे उन्हें पता लग जाता है कि गंध किसकी है। कुछ पतिंगों के ऐंटिना सात किलोमीटर दूर तक मादा पतिंगों का पता लगा लेते हैं। खरगोश, बिल्लियां और दरियाई घोड़े गोबर करके अपने इलाके की सरहद तय कर लेते हैं।

भोजन तलाशती मधुमक्खी को मकरंद भरे फूलों की क्यारियां मिल गईं तो वह छत्ते में लौट कर अपने विशेष अंदाज में नाचने लगती है। नाचते-नाचते ही वह अन्य मजदूर मधुमक्खियों को भोजन की दिशा और दूरी समझा देती है। वे अपने विशेष नृत्य से बता देती हैं कि भोजन कहां पर है, कितनी दूर है और कैसा है? वे नाचते-नाचते सूर्य की स्थिति भी बता देती हैं। खास तरह से नाच कर वे यह भी बताती हैं कि छत्ते से पानी का स्रोत कितनी दूर है। पानी से वे अपने छत्ते को ठंडा करती हैं। एक और प्रकार के नाच में वे बताती  हैं कि उनका छत्ता पूरी तरह नष्ट हो गया है, अब छत्ते के लिए नई जगह खोजनी है।

मधुमक्खियों, पतिंगों, चींटियों और दीमकों के समाज में फेरोमोनों का बड़ा महत्व है। दक्षिण अफ्रीका के प्रसिद्ध प्रकृति विज्ञानी यूजीन मराइस ने दीमकों और चींटियों पर 10 वर्ष तक शोधकार्य किया। उनकी बस्ती में उन्होंने गजब का अनुशासन देखा। सभी दीमकें और चीटियंा अपने-अपने काम में व्यस्त रहतीं। आखिर उन्हें यह सब कौन समझाता है? उनमें समर्पित रूप से काम करने की भावना कैसे आती है? उनके लिए रानी सबसे महत्वपूर्ण होती है मगर वह आदेश नहीं देती। मराइस को लगा ये पाठ फेरोमोन रसायन पढ़ाते हैं। उन्होंने एक दीमक रानी को स्टील की कोठरी में कैद किया। वहां भी उनकी बस्ती खूब फली-फूली। रानी की हत्या कर दी तो बस्ती बिखर गई। आसपास दीमकों की कोई और बांबी मिली तो मजदूर दीमकें उसमें शामिल हो गईं और अपना काम करने लगीं। मतलब शायद वे भी फेरोमोन रसायनों की वही भाषा इस्तेमाल करते होंगे। दूर की बांबियों में मजदूर दीमकें गईं तो उन्हें मार डाला गया। यानी, उन दीमकों के लिए इन दीमकों की रसायन भाषा ‘विदेशी’ थी जिसे वे नहीं समझे और शत्रु मान कर इन्हें मार दिया।

अपने नाच के दौरान मधुमक्खियां फूलों की गंध भी बताती हैं। फूलों की गंध उनके बदन में रसी-बसी रहती है, जिससे भोजन की दिशा और जगह अच्छी तरह समझा दी जाती है। मधुमक्खियों के छत्ते की भी एक विशेष गंध होती है। एक भी बाहरी मधुमक्खी आ जाए तो गंध के ही आधार पर उसे फौरन बाहर खदेड़ दिया जाता है।

चीटियों की कुछ जातियां भोजन लाने के लिए एक निश्चित मार्ग बना लेती हैं। लासियस फुलिजिनोसस जाति की चींटी जब कहीं पर भोजन का भंडार पा लेती है तो बेहद उत्तेजित होकर मल-द्वार से भूमि पर रसायन गिराती हुई वापस लौटती है। उस रसायन की गंध के सहारे दूसरी चींटियां भोजन तक पहुंच जाती हैं। वैज्ञानिकों ने पता लगाया है कि रसायनों की सीधी-सरल भाषा से भी दिशा और दूरी का ज्ञान हो जाता है।

जीव-जंतु इशारों-इशारों में और तरह-तरह की भाव-भंगिमाएं बना कर भी अपनी बात कहते हैं। विशेष मुद्राएं बना कर नर-मादा एक-दूसरे को अपनी और आकर्षित करते हैं। आमतौर पर नर पक्षी खास मुद्रा बना कर मादाओं को रिझाते हैं। नाचता हुआ नर मोर अपने खूबसूरत पंखों को उठा कर मादा को अपनी ओर आकर्षित करता है, नर सारस भी शानदार नृत्य करते हैं। मुर्गा अपनी कलगी हिला कर और गिरगिट अपने सिर और गर्दन की कड़ी रंगीन झालर दिखा कर पौरूष का प्रदर्शन करता है। इनकी ये मुद्राएं पुरूषत्व का प्रदर्शन हैं। पुरूषत्व के संकेत समझ कर मादाओं में शारीरिक क्रियाएं शुरू हो जाती हैं। वे शरीर-क्रियात्मक रूप से प्रजनन के लिए आतुर होने लगती हैं। प्रो. राबर्ट हिंडे ने पता लगाया है कि कैनरी पक्षियों में नर से नजर मिलते ही मादा पक्षी के शरीर में हॉर्मोनों की हलचल शुरू हो जाती है। मादा कैनरी घोंसला बनाने में जुट जाती है। नर पक्षियों की विभिन्न भाव-भंगिमाओं से उनकी आक्रामकता या आज्ञाकारिता का भी पता लग जाता है। प्रजनन ऋतु में नर जहां बेहद आक्रामक बना रहता है, वहीं मादा धीरे-धीरे अपनी मुद्रा विनम्र बना लेती हैं।

आक्रामक मुठभेड़ में प्रतिद्वंदी नर भाव-भंगिमाओं की भाषा में एक दूसरे को चेतावनी देकर संघर्ष और क्षति से बचते हैं। यदि एक नर कठोर और आक्रामक मुद्रा बना कर हावी हो जाता है तो दूसरा पीछे हट जाता है। तब इनमें प्यार के लिए खून-खराबा नहीं होता। 

बंदर अपना कुनबा बना लेते हैं। कुनबे के ही दूसरे नर बंदरों से मुठभेड़ होने पर हर बार संघर्ष नहीं करना पड़ता है क्योंकि अपने चेहरे की मुद्राओं, शरीर की भंगिमाओं व कठोर आवाज से वे फौरन अपनी बात कह देते हैं। शक्तिशाली मुखिया नर बंदर अपनी पूंछ सीधी तान देता है। डरा हुआ दूसरा नर बंदर विनम्र होकर उसका आधिपत्य स्वीकार कर लेता है।     

कुत्ते, बिल्लियां, बंदर, भेड़िए और कई प्राणी शरीर की भाव-भंगिमाओं की भाषा का प्रयोग करते हैं। दो भेड़िए मिलते हैं तो पूंछ से पता लग जाता है कि कौन अधिक ताकतवर है। विजेता की पूंछ ऊपर उठी रहती है। दूसरा भेड़िया अपनी पंूछ टांगों के बीच में डाल लेता है। भेड़ियों के वंशज कुत्तों में भी यही होता है। कुत्ता दुम हिलाता है तो प्यार और आदर दिखाता है, लेकिन बिल्ली पूंछ हिलाती है तो गुस्सा व्यक्त करती है। घोड़े अपने कानों और पूंछ से खुशी या नाराजगी जाहिर कर देते हैं।

मुख मुद्राएं बनाने में चिंपैजियों और बंदरों का जवाब नहीं। वे ‘ऊं’, ‘ऊं’ करके आपस में बातें करते हैं और ‘खों-खों’ करके डराते हैं। भौंहे उठा कर या आंखें नचा कर खुशी या दोस्ती दिखाते हैं।

जुगनू जगमगा कर ‘डैश’ और ‘डॉट’ की भाषा में बात करते हैं। पहले नर चमक पैदा करता है। उसके एक-दो सेकेंड बाद मादा चमक कर चमक का जवाब देती है। उष्ण कटिबंध के कई इलाकों में कुछ जातियों के जुगनू एक साथ मिल कर चमकते हैं, वैसे ही जैसे मेंढक मिल कर एक साथ टर्राते हैं। वे न जाने कैसे एक साथ एक ही समय चमक पैदा करते हैं। उस चमक से मादाएं आकर्षित होकर नर जुगनुओं के पास पहुंच जाती हैं। ‘रेल रोड’ कीडे़ के शरीर में एक सिरे पर लाल और दूसरे सिरे पर हरी रोशनी होती है। वह इन्हीं से संदेश देता है। 

monkey जीव-जंतु स्पर्श से भी अपनी बात कह लेते हैं। जैसे हम हाथ मिलाते हैं, गले लगते हैं, चूमते हैं, नरवानर और बंदर भी गले मिलते हैं और एक-दूसरे को चूमते हैं। बंदरों की कुछ जातियों में नवागंतुक बंदर अपना हाथ बंदर के मुंह में देता है। कुछ देर बाद दूसरा बंदर भी अपना हाथ नवागंतुक बंदर के मुंह में दे देता है। इससे उनमें वि६वास व भाईचारा बढ़ता है। शेर-बाघ, गेंडे और कई प्राणी थूथन मिलाते हैं। हाथी सूंड़ मिला कर तो घोड़े एक-दूसरे के नथुनों में सांस छोड़ कर दोस्ती करते हैं।

बात यह कि कुदरत ने दूसरों से कुछ ‘कहने’ और समझने-समझाने का हुनर केवल हमें ही नहीं बल्कि अपनी दूसरी असंख्य औलादों को भी बख्शा है। कहने-कहाने के किसी तरीके में हम आगे है तो दूसरे तरीके में वे हमसे कहीं आगे हैं। हम अगर अपने इन हमसफर साथियों के अंदाजे-बयां की बारीकियों से थोड़ा भी सीख लें तो उससे हमारे कहने, समझने और समझाने की ताकत बढ़ेगी।

जरा यह भी तो सोचिए कि अगर ऐसा हो जाए तो शायद यह भी मुमकिन हो जाए कि आप सुबह-सुबह उठ कर बालकनी में आएं और कौवा ‘कांव-कांव’ करते हुए आपका हाल पूछ रहा हो और बुलबुलें आपको सुबह के मधुर गीत सुनाने लगें जिनका मतलब भी आप समझ रहे हों! 

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