[पहाड़ों में बाघ और मानव एक साथ रहते आये हैं। इन बाघों को कुकुर बाघ, श्यूँ बाघ के नाम से भी जाना जाता रहा है। कभी कभी बाघ आदमखोर भी हो जाते हैं। नरेन्द्र सिंह नेगी जी ने "सुमा हे निहोणिया सुमा डांडा ना जा" गीत में भी इसी तरह की एक घटना का जिक्र किया है। देवेन्द्र मेवाड़ी जी अपने गांवों के किस्से हमें सुनाते रहे हैं। हाल ही में उनकी तुंगनाथ यात्रा का रोचक वर्णन भी काफी लोगों ने पसंद किया। आजकल वह हमें अपने गांव के श्यूँ…
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Various Articles written on Uttarakhand (उत्तराखंड से संबंधित लेख)
श्यूं बाघ व नेपाली ‘जंग बहादुर’
[पहाड़ों में बाघ और मानव एक साथ रहते आये हैं। इन बाघों को कुकुर बाघ, श्यूँ बाघ के नाम से भी जाना जाता रहा है। कभी कभी बाघ आदमखोर भी हो जाते हैं। नरेन्द्र सिंह नेगी जी ने "सुमा हे निहोणिया सुमा डांडा ना जा" गीत में भी इसी तरह की एक घटना का जिक्र किया है। देवेन्द्र मेवाड़ी जी अपने गांवों के किस्से हमें सुनाते रहे हैं। हाल ही में उनकी तुंगनाथ यात्रा का रोचक वर्णन भी काफी लोगों ने पसंद किया। आजकल वह हमें अपने गांव के श्यूँ…
Read Moreअब कहां रहे वैसे श्यूं-बाघ
[पहाड़ों में बाघ और मानव एक साथ रहते आये हैं। इन बाघों को कुकुर बाघ, श्यूँ बाघ के नाम से भी जाना जाता रहा है। कभी कभी बाघ आदमखोर भी हो जाते हैं। नरेन्द्र सिंह नेगी जी ने “सुमा हे निहोणिया सुमा डांडा ना जा” गीत में भी इसी तरह की एक घटना का जिक्र किया है। देवेन्द्र मेवाड़ी जी अपने गांवों के किस्से हमें सुनाते रहे हैं। हाल ही में उनकी तुंगनाथ यात्रा का रोचक वर्णन भी काफी लोगों ने पसंद किया। आज से वह हमें अपने गांव के…
Read Moreकैसा हो स्कूल हमारा: गिरीश तिवारी ‘गिर्दा’
कैसा हो स्कूल हमारा जहां न बस्ता कंधा तोड़े, ऐसा हो स्कूल हमारा जहां न पटरी माथा फोड़े, ऐसा हो स्कूल हमारा जहां न अक्षर कान उखाड़े, ऐसा हो स्कूल हमारा जहां न भाषा जख़्म उघाड़े, ऐसा हो स्कूल हमारा कैसा हो स्कूल हमारा जहां अंक सच-सच बतलाएं, ऐसा हो स्कूल हमारा जहां प्रश्न हल तक पहुंचाएं, ऐसा हो स्कूल हमारा जहां न हो झूठ का दिखव्वा, ऐसा हो स्कूल हमारा जहां न सूट-बूट का हव्वा, ऐसा हो स्कूल हमारा कैसा हो स्कूल हमारा जहां किताबें निर्भय बोलें, ऐसा हो…
Read Moreकैसे बचें तनाव से ?
पिछ्ले भाग में हमने देखा कि किस प्रकार शहर की भागमभाग ज़िंदगी मनुष्य को तनाव से भर देती है और मनुष्य अपनी याद्दास्त भी खोने लगता है। लेकिन, क्या इस स्थिति से बचने का कोई रास्ता है? कई मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि ‘हां है।’ मिशिगन विश्विद्यालय के मनोविज्ञानी स्टेफेन कैप्लान द्वारा विकसित ‘आर्ट’ यानी अटेंशन रेस्टोरेशन थ्योरी इसका रास्ता है। और, कैप्लान ने जो रास्ता सुझाया, वह है प्रकृति की शरण लेना। कल्पना कीजिए कि कहीं कोई साफ-सुथरी झील है। उसके आसपास नाना प्रकार के पेड़-पौधों की हरियाली बिखरी…
Read Moreमन क्यों परेशान है इस शहर में
अब तक हम सिर्फ सुनते और अनुभव करते थे कि शहर में जिंदगी बेहद तनाव भरी होती है। लेकिन, अब वैज्ञानिकों ने शोध से साबित कर दिया है कि यह सच है। सच है कि शहर की व्यस्त सड़कें और भीड़ भरे बाजार हमारे दिलो-दिमाग को लगातार बीमार बना रहे हैं। शहर में फैले कंक्रीट के जंगल के किसी कोने में, कहीं किन्हीं ऊंची इमारतों के बीच किसी फ्लैट या अपार्टमेंट में एक टुकड़ा हरियाली, धूप और आसमान के लिए तरसती जिंदगी हमें हरदम तनाव से भरती रहती है। अब…
Read Moreनैनीताल और हिन्दी फिलमवाले
[ पिछले अंक में आपने नैनीताल के आसपास फैले प्राकृतिक दृश्यों का आनन्द लिया। डोटियाल यानि नैपाली मजदूरों के बारे में भी पढ़ा। आइये आज नैनीताल के कुछ और दृश्यों का आनन्द लेते हैं। ] यों शाम को मालरोड गुलजार हो जाती थी। लोग तल्लीताल-मल्लीताल की सैर पर निकल पड़ते। जगह-जगह आते-जाते परिचित दूर से ही हाथ सिर की सीध में उठा कर ‘नमस्कार’ की मुद्रा में जोड़ कर इशारे से ही दोनों हथेलियां हिला कर बिना बोले पूछ लेते और दाज्यू, सब ठीक ठाक?’ और, आगे बढ़ जाते। तल्लीताल,…
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