मन क्यों परेशान है इस शहर में

stress अब तक हम सिर्फ सुनते और अनुभव करते थे कि शहर में जिंदगी बेहद तनाव भरी होती है। लेकिन, अब वैज्ञानिकों ने शोध से साबित कर दिया है कि यह सच है। सच है कि शहर की व्यस्त सड़कें और भीड़ भरे बाजार हमारे दिलो-दिमाग को लगातार बीमार बना रहे हैं। शहर में फैले कंक्रीट के जंगल के किसी कोने में, कहीं किन्हीं ऊंची इमारतों के बीच किसी फ्लैट या अपार्टमेंट में एक टुकड़ा हरियाली, धूप और आसमान के लिए तरसती जिंदगी हमें हरदम तनाव से भरती रहती है। अब वैज्ञानिक तनाव भरे शहरी जीवन के खतरों से लगातार आगाह कर रहे हैं कि अगर हम प्रकृति से दूर होते चले गए तो कल जीना दूभर होता चला जाएगा।

आज महानगरों की भीड़ में जी रहा आदमी इस कदर तनाव से पीड़ित है कि वह जरा-जरा सी बात पर बुरी तरह झुंझला कर मरने-मारने पर उतारू हो जाता है। महानगरों की सड़कों पर तो हर आदमी जैसे तनाव के बारूद से भरा हुआ है। जरा सी तू-तू, मैं-मैं हुई नहीं कि जवाब में चाकू और तमंचे निकल आते हैं। कहा-सुनी में जान ले लेने की घटनाएं लगातार बढ़ रही हैं। किसी कवि की पंक्तियां सटीक साबित हो रही हैं :  ‘आज की ताजा खबर/ सुबह का गया, शाम को घर लौट आया!’

शहर कुछ लोगों के लिए भले ही भौतिक सुखों की खान हों, मगर वे आदमी को प्रकृति से लगातार दूर करते जा रहे हैं। शहर के उस शोर और मनुष्यों व इमारतों की भीड़ में बच्चे तक न परिंदों की चहचहाहट सुन सकते हैं, न रंगीन तितलियों को छू सकते हैं, न नदियों की कल-कल, न पत्तियों की सर-सर सुन सकते हैं। मनोवैज्ञानिकों ने पता लगाया है कि इसके कारण शहर के माहौल में दिमाग पर दबाव लगातार बढ़ता जा रहा है और उसे काफी क्षति पहुंच रही है। एक अध्ययन में देखा गया है कि शहर की किसी भीड़ भरी जगह से गुजरते समय चंद मिनटों के भीतर याददाश्त कम होने लगती है जिसके कारण आदमी आत्म नियंत्रण खोने लगता है।

यहां हमें यह याद रखना चाहिए कि भारत के विभिन्न शहरों में आज 30 करोड़ से भी अधिक लोग रह रहे हैं। 2015 तक मुंबई विश्व का दूसरा सबसे घना बसा शहर हो जाएगा जिसकी आबादी लगभग 2.09 करोड़ तक पहुंच जाएगी। दिल्ली और कलकत्ता भी सबसे घने बसे शहरों में शामिल रहेंगे। वैश्विक स्तर पर देखें तो वर्ष 1900 में शहरों का अनुपात केवल 13 प्रतिशत था जो 2005 में 49 प्रतिशत तक बढ़ चुका था। संयुक्त राष्ट्र के एक अनुमान के अनुसार 2030 तक विश्व की 60 प्रतिशत आबादी यानी 4.9 अरब लोग शहरों में रह रहे होंगे। और, यहां हमारे देश में 2030 तक आधी आबादी शहरों में रह रही होगी।stress1

मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि आदमी का दिमाग कुदरत की एक मशीन ही है। लेकिन, हजारों लोगों की भीड़, शोर-शराबा, आसपास से गुजरती तेज रफ्तार गाड़ियां इस मशीन को बुरी तरह थका देती है। भारी शोर-शराबे और आपाधापी में दिमाग कुछ और सोचने के बजाय सिर्फ यह सोचने के लिए मजबूर हो जाता है कि बस बचते-बचाते कैसे बाहर निकला जाए। शोर से ध्यान हटाए बिना दिमाग ढंग से कुछ और नहीं सोच पाता। जो ऊर्जा कम्प्यूटर रूपी दिमाग में सोचने के काम आनी चाहिए, उसका अधिकांश हिस्सा शोर से ध्यान हटाने और बचने-बचाने में खर्च हो जाता है।

क्या इससे बचने का कोई उपाय है…इसकी चर्चा हम अगले अंक में करेंगे।

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3 Thoughts to “मन क्यों परेशान है इस शहर में”

  1. बहूत अच्छा लिखा है मेवाडी जी आपने यह लेख, पढकर ऐंसा लगा जैसे सिफॅ मेरे लिए ही लिखा है। मै भी 24 घन्टे ब्यस्त रहने वाली दिल्ली शहर मे रहता हुं मुझे भी हर रोज इसी समस्या से गुजरना पडता है।

  2. ashutosh pandey

    bahute achha likh hai mewari bhai. mujhe aapaka lekh padkar aapana tanave bhul gaya . mai wardha me rahata hu.

  3. आशुतोष भाई, धन्यवाद। आपका तनाव दूर करने के लिए इधर मैंने और भी कई चीजें लिखी हैं। पढ़िएगा… (http://dmewari.merapahad.in) में।

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