श्री देवी दत्त पन्त द्वारा अपने विश्वविद्यालय की याद

काशी हिन्दू विश्वविद्यालय-मेरा विश्वविद्यालय
श्री देवी दत्त पन्त

सम्भवत: पांच साल पुरानी बात है। बम्बई में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के पूर्व छात्रों का वार्षिक मिलन समारोह था। मैं भी संयोगवश उसमें आमंत्रित था। कई वक्ताऒं ने अपने संस्मरण सुनाये। फिर एक वयस्क महिला बोलने उठीं और कहा कि वे काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की हार्दिक आभारी हैं क्योंकि इस विश्वविद्यालय ने उन्हें इतना सदाचारी और सहृदय पति दिया। यह विचार उन्होंने केवल अपने लिए ही व्यक्त नहीं किया वरन् उन्होंने कहा कि कई बहिनों की भी ऐसी ही धारणा है। यह अद्भुत सुखदायी विचार था। मैंने अंदाज लगाया उनके पति पांचवें दशक में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के विद्यार्थी रहे होंगे। मैं तीसरे चौथे दशक में वहां था। मेरा ख्याल था कि (जैसा अधिकांश लोग कहा करते हैं) पुराने विद्यार्थी नयों से अधिक गुणग्राही रहे होंगे तथापि मुझे अपनी पत्नी से पूछने का साहस नहीं हुआ कि उक्त महिला के कथन से वे कहां तक सहमत हैं। मालवीय जी का सादा जीवन उच्च विचार का सूत्र इस विश्वविद्यालय को महत्वपूर्ण देन है। आज भी सब उथल-पुथल के बाद भी यह सूत्र जीवित है। दो साल पूर्व स्पेक्ट्रोस्कोपी विभाग ने अपनी स्वर्णजयन्ती मनाई जो प्रो. असुंदी के पुराने विद्यार्थी थे, सम्मान प्राप्त करने के लिए निमंत्रित किये गये थे। प्रो. नन्दलाल सिंह भी उनमें से एक थे, मैं भी था। जलपान के बाद सबकी प्रशंसा की गई। एक ऊनी शॉल तथा एक सरस्वती की प्रतिमा भी भेंट में दी गई। समारोह अच्छा, भावपूर्ण और सुखद था पर लम्बा हो गया था। बाहर निकलने पर मैंने साथ चल रहे मित्र से सहज रूप में ही कहा कि समारोह में समय ज्यादा लग गया जो कम किया जा सकता था। इस पर मेरे आगे चल रहे दो युवा वैज्ञानिक (शायद कोचीन विश्वविद्यालय के थे) एकदम पलट कर नाराज़गी से बोले “आप क्या कह रहे हैं ? और विश्वविद्यालयों में बुड्ढों को धक्के देकर निकाल दिया जाता है, उनके सम्मान की बात तो बनारस में ही सोची जा सकती है।” डांट अच्छी लगी क्योंकि बात सच थी। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में ही वृद्धों के सम्मान की बात हो सकती है।

काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में फीस या किराया न देने पर निकाल दिया जायेगा इसका डर न था-फीस माफ हो जायेगी वरना मालवीयजी महाराज के पैर पकड़ने में क्या लगता है ? कमीज, पायजामा, चप्पल सभी की पोशाक थी। एक अद्भुत घरेलू माहौल में दिन कटते थे।

सन् १९३८ के जुलाई माह में मैं बी.एस-सी. में प्रवेश लेने बनारस आया। पहाड़ी युवक इलाहाबाद पढ़ने जाते थे, वहां का स्तर अच्छा समझा जाता था। नौकरियां भी वहां के विद्यार्थियों को ही मिलती थीं। बनारस से अंग्रेज सरकार चिढ़ती थी क्योंकि वह एक राष्ट्रीय संस्था थी। मेरी आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी। मित्रों ने बताया कि मालवीय के विश्वविद्यालय में एक बार चले जाओ तो फिर कुछ न कुछ रास्ता निकल ही आयेगा। चौथे हॉस्टल में रहने को स्थान मिला। एक रुपया किराया था। मेस का महाराज आठ रुपये में अच्छा खाना देता था। उसका महीनों उधार चढ़ा रहता था पर तंग नहीं करता था। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में फीस या किराया न देने पर निकाल दिया जायेगा इसका डर न था-फीस माफ हो जायेगी वरना मालवीयजी महाराज के पैर पकड़ने में क्या लगता है ? कमीज, पायजामा, चप्पल सभी की पोशाक थी। एक अद्भुत घरेलू माहौल में दिन कटते थे। कभी-कभी नये पुराने विद्यार्थी कमरे में आ जाते। गप्पें चलतीं। वही राजनीति, सेक्स और प्रोफेसरों के बाबत। कुछ ही वर्ष पूर्व वसंत पंचमी को (विश्वविद्यालय स्थापना दिवस पर) एक पैम्पलेट छपा था जो बिजली की गति से बँट गया। कोई पकड़ा नहीं जा सका। कविता की शैली में महिला महाविद्यालय और महिला छात्रावास के वासियों पर कटाक्ष थे। कुछ प्रोफेसरों तथा छात्र नेताऒं पर भी व्यंग्य थे। प्रशासन का परिहास था। सब मिलाकर पढ़ना रोचक होता था। नाम था “बी.एच.यू.” का चिड़ियाघर। एक बार वह पढ़ने को मिल गया, घंटो बहस चलती रही, भाग्य से कोई कहीं से ले भी आता तो अच्छी-खासी जमघट हो जाती थी। कभी प्रोफेसरों की बात चल पड़ती। लोग कहते मालवीय जी पकड़-पकड़ कर अच्छे लोगों को लाते थे। नाम गिने जाते-गणेश प्रसाद, बीरबल साहनी, शान्ति स्वरूप भटनागर आदि। हमारे वक्त में भी नामी और त्यागी लोग थे, अधिकांश बंगाली या दक्षिण भारत के थे। विद्यार्थी भी सभी प्रान्तों के थे। यू.पी. के लोग कम मेघावी समझे जाते थे। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के प्रति सभी का प्रेम था। लड़के छोटी-मोटी बातों के लिए हड़ताल भी करते थे। सब चलता था पर मालवीय जी का वर्चस्व सर्वत्र था। आखीर में स्पोर्ट्स के मैच की तरह सब वैसा ही हो जाता था। प्रोफेसरों की बहादुरी के गुणगान भी होते थे। इंजीनियरिंग कालेज में पुराने प्रिंसिपल मिस्टर किंग का नाम सर्वोपरि था और बड़े सम्मान के साथ लिया जाता था। वे अंग्रेज (शायद आइरिश) थे, विद्यार्थियों से प्रेम करते थे।

सत्र के प्रारम्भ में मालवीय जी महाराज का भाषण होता। उनके भाषणों की वैसे बड़ी ख्याति थी लेकिन यह भाषण साधारण ही रहता और विद्यार्थियों से अंत में आग्रह पूर्वक बुलवा लिया जाता “बोलो ईश्वर है” विद्यार्थी भरे मन से कहते “ईश्वर है”। कभी नागरी प्रचारिणी सभा में साहित्य सम्मेलन होता, कवियों, साहित्यकारों की वाणी सुनने को मिलती। शिवरात्रि के दिन विश्वनाथ जी के मन्दिर में व्यवस्था बनाने के लिए हम स्वयं सेवक बनाये जाते। व्यवस्था में सख्ती करने पर पण्डे नाराज होते और चुनिन्दे शब्दों में गाली देते।

एक दिन एक गरीब आदमी मालवीय जी के पास आया और बोला उसकी पत्नी अस्पताल में भर्ती हुई है उन्हें दवा के लिए १० रुपये चाहिए। जेब टटोलने पर मालवीय जी ने पाया कि उनकी जेबें खाली हैं। पास से नौकर गुजर रहा था उससे पूछा क्या वह १० रुपये उधार दे सकता है? उसने कहा “महाराज आपका ही दिया खाते हैं मेरे पास कहाँ से रुपये आयेंगे?

आज महामना की मृत्यु के ५० वर्ष बाद समझ में आता है कि महामना कितने महान् थे। तब तो सुनी सुनाई बातों अथवा प्रशंसा से ही हम भी प्रभावित थे। मालवीयजी महाराज कुलीन, सनातनी ब्राह्मण थे। राजा शिव प्रसाद गुप्त के यहाँ से परम्परानुसार “सीधा” आता था। तब उनका भोजन बनता था। कुलपति होने के उन्हें ५०० रुपये महीने मिलते थे। जो अधिकांश में सहायता देने के ही काम आते थे। स्व. डा. शुकदेव पाण्डेय (सेक्रेटरी बिडला एजूकेशन ट्रस्ट, पिलानी) ने अपने संस्मरण में मुझे बताया था कि एक दिन एक गरीब आदमी मालवीय जी के पास आया और बोला उसकी पत्नी अस्पताल में भर्ती हुई है उन्हें दवा के लिए १० रुपये चाहिए। जेब टटोलने पर मालवीय जी ने पाया कि उनकी जेबें खाली हैं। पास से नौकर गुजर रहा था उससे पूछा क्या वह १० रुपये उधार दे सकता है? उसने कहा “महाराज आपका ही दिया खाते हैं मेरे पास कहाँ से रुपये आयेंगे? संकोच से पांडेजी ने महाराज से निवेदन किया कि उनके पास रुपये हैं, उन्हें आज्ञा हो तो वे दे दें। मालवीयजी ने उनसे १० रुपये लिये और उस आदमी को दिये। शुकदेव जी को हिदायत दी गई कि वे रुपये मालवीयजी से कल वापिस ले लें।

पूज्य मालवीय जी ने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के लिए इस शताब्दी के दूसरे दशक में जनता से करोड़ों की भिक्षा मांगी थी। डा. अम्बेडकर से, जो दलितों के विभाजन के पक्ष में थे, १९३२ के आमरण अनशन में गांधी जी के जीवन की भीख मांगी थी। कहा था वे ब्राह्मण हैं और अम्बेडकर को भिक्षा देनी ही होगी। क्या विश्वास, साहस और पारदर्शिता थी? कई वर्ष बाद प्रो. सी.वी. रमन ने भी “रामन रीसर्च इन्स्टीट्यूट” खोलने के लिए दान प्राप्त करना शुरू किया था। बोलते थे कि उन्हें इसमें कोई संकोच नहीं है कि वे भिखारी बन गए हैं। भारत में सब बड़े आदमी भिखारी हुए हैं- बुद्ध, शंकर, गाँधी और पंडित मालवीय। सन् १९४४ में, मैं बंगलौर छोड़ रहा था, विदा लेने प्रोफेसर रमन के पास गया। भावुक होकर उनके चरण स्पर्श करना चाहा, बहुत नाराज हुए, बोले न वे चरण स्पर्श करवाते हैं और न करते हैं-सिवाय पंडित मदन मोहन मालवीय के। विलक्षण व्यक्तित्व था मालवीय जी का। राष्ट्रीय कांग्रेस के कई बार अध्यक्ष रहे और हिन्दू महासभा के भी। अंग्रेजों से भी मित्रता थी। लार्ड हार्डिंज ने ही तो १९१६ में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की नींव रखी थी और टेक्नोलॉजी की शिक्षा का आगे आने वाले भारत में महत्व समझा था। इतने बड़े विश्वविद्यालय का निर्माण भीख से ही हुआ था। दूसरे दिन गांधीजी अतिथि होकर आये। राजा महाराजा समारोह में सजधज कर आये थे। गाँधी जी तब भारत के लिए काफी नये थे। अपने भाषण में उन्होंने राजा महाराजाओं के अलंकरण पर आक्रमण किया और आह्वान किया कि औरतों की तरह ज़ेवर पहिनना उन्हें शोभा नहीं देता। यह सब मालवीय जी महाराज को दान कर दें और उसका सदुपयोग करें। हंगामा हो गया। यह प्रसंग पढ़ने लायक है और यह भी समझने की बात है कि मालवीयजी ही ऐसी स्थिति को साधारण रूप में ले सकते थे। उनके बारे में प्रसिद्ध था कि कट्टर ब्राह्मण होने पर भी वे अंग्रेज अफसरों को बुलाते थे और उनसे हाथ भी मिलाते थे। यह बात अलग था कि उनके जाने के बाद मिट्टी और गंगाजल से हाथ धो लेते थे।

सन् १९४१ में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की रजत जयन्ती मनाई गई। तब डा. राधाकृष्णन् कुलपति हो चुके थे। कोर्ट की सभा में सर शान्ति स्वरूप भटनागर ने कहा था काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के वाइस चांसलर होने के लिए दो शर्ते हैं-एक वह व्यक्ति हिन्दू होना चाहिए और दो, वह अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति का होना चाहिए। यद्यपि दूसरी शर्त बाद को कई मामलों में पूरी नहीं हुई तथापि कुछ नामी और उच्च व्यक्तित्व के लोग कुलपति की गद्दी पर बाद को भी बैठे। राधाकृष्णन् के जमाने में ही कुछ दक्षिण-उत्तर भारत की राजनीति जन्म लेने लग गई थी। तथापि काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में रौनक बनी रही। उनका गीता प्रवचन सुनने बहुत लोग आते थे, क्या धारा प्रवाह बोलते थे। मंत्र मुग्ध रह जाना पड़ता था। पर बनारस के पंडितों को कहते सुना गया था कि राधाकृष्णन् संस्कृत सही नहीं बोलते। खैर मैं तब एम.एस-सी. भौतिकी का विद्यार्थी था। संगीत विद्यालय में सायं संगीत सीखता था। अत: “गुरूजी” ने रजत जयन्ती समारोह में मंगलाचरण गाने वालों की टोली में मुझे भी सम्मिलित कर लिया था। मंच के पास ही बैठने को मिला। बड़े-बड़े लोग आये थे। गाँधी जी, जवाहरलाल जी, राजेन्द्र बाबू, मौरिस गौयर इतने नाम तो याद पड़ते ही हैं। मालवीय जी भी थे। भीड़ शांत नहीं होती थी। नेहरू जी एकाएक, मंच से कूदे और लोगों को मुक्के मार-मार कर बैठाने लगे। गाँधी जी ने मालवीय जी पर कटाक्ष किया। सुबह से घूमकर वापिस आ रहे थे तो गेट (तब छोटा गेट था) पर उन्होंने देखा बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी अंग्रेजी में बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा है और काशी हिन्दू विश्वविद्यालय हिन्दी में छोटे अक्षरों में। उन्होंने हिन्दी पढ़ने के लिए चश्मा लगाया तब पढ़ पाये। गांधी जी किसी को नहीं छोड़ते थे। पर उनके व्यंग्य में कटुता नहीं होती थी। कुछ वर्षों बाद आज का बड़ा भव्य गेट बना और हिन्दी में अक्षर काफी बड़े हो गये। पर गांधी उन्हें देखने फिर नहीं आ सके।

मैं तब एम.एस-सी. भौतिकी का विद्यार्थी था। संगीत विद्यालय में सायं संगीत सीखता था। अत: “गुरूजी” ने रजत जयन्ती समारोह में मंगलाचरण गाने वालों की टोली में मुझे भी सम्मिलित कर लिया था। मंच के पास ही बैठने को मिला। बड़े-बड़े लोग आये थे। गाँधी जी, जवाहरलाल जी, राजेन्द्र बाबू, मौरिस गौयर इतने नाम तो याद पड़ते ही हैं। मालवीय जी भी थे। भीड़ शांत नहीं होती थी। नेहरू जी एकाएक, मंच से कूदे और लोगों को मुक्के मार-मार कर बैठाने लगे।

सन् १९४२ के जुलाई में एम.एस-सी. पास करने के बाद फिर बनारस आया और सोचा कि प्रो. असुंदी के संरक्षण में पी-एच.डी. करूँगा। बिड़ला हास्टल में किसी विद्यार्थी के साथ रहता था कि अगस्त का आन्दोलन शुरू हो गया। लड़के पागल हो उठे। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय बन्द कर दिया गया पर हॉस्टल में लड़के बने रहे। वहीं से कार्यक्रम चलते रहे। मेरा उद्देश्य इस वर्णन में ४२ की घटनाओं पर प्रकाश डालना नहीं है पर यह बताना है कि शिक्षक और विद्यार्थी के सम्बन्ध किस गहराई तक जाते थे। वैसे प्रो. असुंदी भी विलक्षण व्यक्ति थे, नामी स्पेक्ट्रोस्कोपिस्ट थे। घर में एक पुत्र था। पत्नी का देहान्त हो चुका था। हम लोग उनके साथ घर में, लैब में, घूमने में बराबर साथ रहते। उनका हम सबके प्रति पुत्रवत् व्यवहार था। उनसे भौतिकी ही नहीं धर्म, राजनीति, साहित्य सबकी शिक्षा मिलती थी। १२ या १३ तारीख अगस्त को एकाएक वे रिक्शे पर बैठकर बिड़ला हॉस्टल आये। बोले अपना सामान निकालो और मेरे घर चलो, मैं आश्चर्य में रह गया। पूछने पर भी उन्होंने नहीं बताया कि मुझे हॉस्टल क्यों छोड़ना है और क्यों उनके घर रहना है। मैंने आज्ञा का पालन किया। समझ में दूसरे दिन आया जब विश्वविद्यालय को गोरी फौज ने घेर लिया। हॉस्टलों पर फहराते तिरंगे झंडे काटकर गिरा दिये गये। लड़कों को ट्रकों पर भर कर कई मील दूर जंगल में छोड़ दिया गया। प्रो. अंसुदी को भनक मिल गई थी कि कल क्या होने वाला है और मुझे बचा ले गये। उनके घर लगभग एक महीने रहा। प्रो. असुंदी ने फिर बंगलौर में प्रो. रमन से भेंट कर रिसर्च का प्रबन्ध करवाया और रास्ते के खर्च तथा प्रवेश के लिए भी रुपये दिये। मैं बंगलौर चला गया। मुझे वजीफा भी मिल गया और प्रो. रमन के संरक्षण में काम करने का अवसर भी। ऐसे थे हमारे प्रो. असुंदी। उनका पुत्रवत् व्यवहार अपने सब विद्यार्थियों के साथ मरते दम तब बना रहा। सबका जीवन बनाने में उनका योगदान कुछ न कुछ अवश्य रहा। कालान्तर में विश्वविद्यालय में खूब धन आने लगा। प्रोफेसरों के ग्रेड अच्छे हो गये। उसके साथ ही ठाट-बाट, सोफासेट, सभी उन्नति करते गये। साथ ही स्थानीय विद्यार्थियों की राजनीति भी बढ़ी।

सन् १९४९ में मुझे डॉक्टरेट की उपाधि प्रदान हुई। दीक्षांत समारोह में उपस्थित हुआ। रात्रि भोज के बाद प्रो. रमन का भाषण था। विषय था थर्मोडाइनेमिक्स। एक तकनीकी विषय को सुनने के लिए हजार की भीड़ थी। लोग समझें या नहीं पर रमन साहब की हंसौड़ शैली का आनन्द लेते थे। ओंकार नाथ ठाकुर का शास्त्रीय गायन था। उन्होंने सूरदास का “मैया मोरी मैं नहीं माखन खायो” गाया और उसके बाद लगभग बारह बजे भैरवी में “जोगी मत जा” गाया। दिसम्बर की सर्दी में पसीने से तर थे वे और आमोद सरोवर में डूबे हम भी मजा लेते रहे। यह अविस्मरणीय माहौल और कहीं नहीं मिल सकता, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय ही दे सकता था।

तेल और प्राकृतिक कमीशन की कहावत है कि तेल नहीं निकल रहा हो तो बोर करना बन्द कर देना चाहिए। जानते हुए भी कि तेल पर्याप्त मात्रा में नहीं है मुझे कुछ देर और बोर करने की अनुमति चाहिए। स्पेक्ट्रोस्कोपी विशेष विषय के रूप में डा. असुंदी के काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में प्रोफेसर का पद ग्रहण करने के बाद खुला। जगदेव सिंह और मैं उनके एम.एस-सी. में पहले विद्यार्थी थे। जगदेव सिंह भू-भौतिकी के प्रोफेसर होके रिटायर हुए। बनारस ही रहते हैं। अथक परिश्रमी, सरल, निडर और चरित्रवान् व्यक्ति हैं। प्रो. नन्दलाल सिंह अध्यापक थे पर डा. असुंदी के साथ रिसर्च करते थे। हम दोनों पर उनकी दया दृष्टि रहती थी। लैब में तब उपकरण नहीं थे। फिर भी डा. असुंदी का उत्साह था। कुछ काम होता रहता था।

औपचारिक शिक्षा से वैचारिक शक्ति, सृजनात्मक ज्ञान, अभिव्यक्ति का कौशल प्राप्त होता है पर वास्तविक शिक्षा आपकी समस्त आत्मा में प्रवेश करती है। आप क्या हो जाते हैं वही वास्तविक वस्तु है। आत्मा को रंग देना वातावरण की शुद्धता और स्वतन्त्रता के बिना नहीं होता। उन पढ़ाई के चार वर्षों में मैंने कितनी भौतिकी पढ़ी यह कत्तई महत्वपूर्ण नहीं है। कितने प्रकार के प्रतिबिम्ब हृदय पटल पर बनते गए, अपने गुरुओं सहपाठियों के संसर्ग-संपर्क माध्यम से तथा संस्कृति का जो बोध मुझे हुआ वह लगता है बनारस में ही सम्भव था। दो साल में परीक्षा होती थी। पर्याप्त समय रहता था परीक्षा के डर से विमुक्त होने का। पुस्तकालय में ओपेन सेल्फ थे। मैंने खाली समय में हिन्दी के लगभग समस्त उपन्यास, नाटक, साहित्य तथा अंग्रेजी में टालस्टाय, डोस्टोवस्की इत्यादि की कई कृतियाँ पढ़ डाली। इनका प्रभाव मेरे जीवन पर कितना पड़ा यह मुझे अच्छी तरह मालूम है। कितने समारोह, साहित्य गोष्ठियाँ, संगीत सम्मेलन देखने को मिले। गाँधी, नेहरू, पटेल, सुभाष बोस, आचार्य कृपलानी, राजेन्द्र बाबू, नरेन्द्र देव, युसुफ मेहर अली, जय प्रकाश अनेक वैज्ञानिक विचारकों के भाषण सुने। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय का यह आकर्षण तब और अधिक था एक तो नेताऒं का अपना गरिमामय इतिहास था दूसरा काशी हिन्दू विश्वविद्यालय विशेष राष्ट्रीय संस्था थी।

एक दिन चतुर्थ हॉस्टल से बाहर निकल कर सड़क पर आने पर देखा कि दो व्यक्ति आगे चले जा रहे हैं। एक छोटे कद का बनारसी पण्डित था दूसरा लम्बा चौड़ा आर्यन शरीर का

मुझे आर्ट्स कॉलेज हॉल में कृपलानी जी के भाषण का प्रारम्भिक अंश आज भी याद है। वे बड़े हसौड़ व्यक्ति थे। गरम पुराने किस्म का ओवरकोट पहिने जोकर से लगते थे। बोले-मैं काशी हिन्दू विश्वविद्यालय का Culprit हूँ यहाँ से एक लड़की को भगा ले गया था। वह लड़की सुचिता कृपलानी थी जो बाद में यू.पी. की मुख्यमंत्री हुयीं।

सुडौल पर फटे मैले किस्म का कुर्ता पहिने व्यक्ति था। पंडित बोला-पंडित जी यह विश्वविद्यालय है यहाँ ठीक-ठाक कपड़े पहिनने चाहिए। गम्भीर मुद्रा में आर्यन व्यक्ति ने जवाब दिया कौन साला मेरा क्या कर लेगा। आगे क्रॉसिंग पर चलने पर किसी ने बताया कि वे निराला जी थे। शनिवार को हॉस्टल के कामन रूप में आमंत्रित लोगों के भाषण होते थे, कभी लोहिया तो कभी जयप्रकाश मिल जाते थे। मुझे आर्ट्स कॉलेज हॉल में कृपलानी जी के भाषण का प्रारम्भिक अंश आज भी याद है। वे बड़े हसौड़ व्यक्ति थे। गरम पुराने किस्म का ओवरकोट पहिने जोकर से लगते थे। बोले-मैं काशी हिन्दू विश्वविद्यालय का Culprit हूँ यहाँ से एक लड़की को भगा ले गया था। वह लड़की सुचिता कृपलानी थी जो बाद में यू.पी. की मुख्यमंत्री हुयीं। डा. के. एम. कृष्णन ने प्रसिद्ध भौतिक शास्त्री पौली के संस्मरण सुनाये थे। पौली विचित्र व्यक्ति थे। कृष्णन ने उनके सेक्रेटरी से पौली से मिलने का समय दिन में कभी भी माँगा। सेक्रेटरी ने कहा-महोदय आप नहीं जानते कि प्रोफेसर पौली दुनियां से ११ के फेज अंतर (फेज डिफरेंस) पर रहते हैं। मतलब की दिन भर सोते और रात भर काम करते हैं। वल्लभ भाई पटेल व्यंग्य भरने में एसिड का काम करते थे। समाजवादी पार्टी से नाराज थे। बोले-एक कुतिया सामान से लदी बैलगाड़ी के नीचे लटक रही है और कहती है कि बैलगाड़ी मेरे बल पर चल रही है। कांग्रेस से निकलने के बाद सुभाष बाबू भी आए थे। रात के १२ बजे के आस-पास गाँधी जी के चरखे पर प्रहार करके बोले यदि चरखा कातने से स्वराज मिलता तो भारत गुलाम ही नहीं होता यहाँ तो अंग्रेजों के आने से पहिले कई जुलाहे थे। कितने वर्णन करूँ। आज वृद्धावस्था में याद करता हूँ तो आनन्द से हृदय भर जाता है। कई बूढ़े लोग दक्षिण भारत के मिले वह भी आनन्द विभोर होकर अपने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के दिनों को याद करते हैं।

भौतिकी में मेरे सहृदय मित्र मुझे अवसर देते रहते हैं कि मैं आज भी काशी हिन्दू विश्वविद्यालय आऊँ। सब अपना प्रेम और आदर देते हैं। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय मेरा दूसरा घर है। जब भी मौका मिले आता हूँ। मित्रों से मिलने पर आनन्दित होता हूँ। आज भी उनके साथ गंगा विहार, पिकनिक का आनन्द लेता हूँ। यह अवसर वे ही पैदा करते हैं। संकट मोचन काशी हिन्दू विश्वविद्यालय का एक अंग है। वहाँ भी जाता हूँ। कभी राम कथा भी सुनता हूँ। शाम को प्रो. नन्दलाल जी के यहाँ बैठकर चाय पीना, गप्प करना और पंडित जी से पौराणिक प्रसंगों की विसंगतियों पर बात करना। ईश्वर से प्रार्थना करता हूँ कि ये मौके मिलते रहें।

[यह लेख श्री देवी दत्त पंत ने जी ने काशी विश्वद्याल के एक संभाषण के लिये लिखा था]

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डॉक्टर डी.डी.पंत लेखक आशुतोष उपाध्याय

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