[पिछ्ले भागों में आपने पढ़ा कि किस प्रकार शेखर पाठक जी अपने साथियों के साथ गौरा देवी से मिले और कैसे हुई चिपको की शुरुआत। आज जानिये चिपको आंदोलन के बाद के परिदृश्य के बारे में। ]
रैणी 1984 में पौने पाँच बजे हमारी सभा शुरू हुई। 1974 के रैंणी आन्दोलन में शामिल हरकी देवी, उमा देवी, रुपसा देवी, इन्द्री देवी, बाली देवी, गौमा देवी, बसन्ती देवी आदि सभा में आ गईं। सभापति जी के साथ गाँव के अनेक बच्चे और बुजुर्ग भी जमा हो गये। गौरा देवी ने सूत्रवत् बात की और कहा-‘‘हम कुछ और नहीं सोचते। जब जंगल रहेगा तो हम रहेंगे और जब हम सब एक होंगे तो जंगल बचेगा, बगड़ बचेगा। जंगल ही हमारा रोजगार है, जिन्दगी है, मायका है। आज तिजारत नहीं रही। भेड़ पालन घट गया है। ऊपर को नेशनल पार्क (नन्दा देवी अभयारण्य) बन रहा है। बाघ ने पैंग के उम्मेद सिंह की 22 बकरियाँ एक ही दिन में मार दीं। आखिर हमारी हिफाजत भी तो होनी चाहिये।….’’ सभापति जी बोले कि विष्णुप्रयाग परियोजना बंद हो रही है। छोटा मोटा रोजगार भी चला जायेगा। ऊपर नेशनल पार्क बन रहा है। हमारे हक-हकूक खत्म हो रहे हैं। उन्होंने चिपको आन्दोलन की खामियाँ भी गिनाई और कहा कि सरकार के हर चीज में टाँग अड़ाने से सब बिगड़ा है। रोजगार की समस्या विकराल थी क्योंकि यहा का भोटिया समाज नौकरियों में अधिक न जा सका था।
कुछ बातें औरों ने भी रखीं। हम बस, सुनते जा रहे थे। उन सबकी सरलता, पारदर्शिता और अहंकार रहित मानसिकता का स्पर्श लगातार मिल रहा था। सभा समाप्त हो गई। उनका रुकने का आग्रह हम स्वीकार न कर सके। विदा लेते हुए सभी को प्रणाम किया। सबने अत्यन्त मोहक विदाई दी। गौरा देवी ने हम तीनों के हाथ एक-एक कर अपने हाथों में लिये। उन्हें चूमा और अपनी आँखों तथा माथे से लगाया। वे अभी भी मुस्कुरा रहीं थीं और हम सभी भीतर तक लहरा गये थे उनकी ममता का स्पर्श पाकर। धीरे-धीरे सड़क में उतरते, उपर को देखते थे। उपर से गौरा माता अपनी बहिनों के साथ हाथ हिला रही थीं। हम तपोवन की ओर चल दिये। इतनी-सी मुलाकात हुई थी हमारी गौरा देवी से। बिना इसके उनके व्यक्तित्व की भीतरी संरचना को हम नहीं समझ पाते।
गौरा देवी और चिपको आन्दोलन
गौरा देवी चिपको आन्दोलन की सर्वाधिक सुपरिचित महिला रहीं। इस पर भी उनकी पारिवारिक या गाँव की दिक्कतें घटी नहीं। चिपको को महिलाओं का आन्दोलन बताया गया पर यह केवल महिलाओं का कितना था? अपनी ही संपदा से वंचित लोगों ने अपना प्राकृतिक अधिकार पाने के लिए चिपको आन्दोलन शुरू किया था। इसके पीछे जंगलों की हिफाजत और इस्तेमाल का सहज दर्शन था। चिपको आन्दोलन में तरह-तरह के लोगों ने स्थाई-अस्थाई हिस्सेदारी की थी। महिलाओं ने इस आन्दोलन को ग्रामीण आधार और स्त्री-सुलभ संयम दिया तो छात्र-युवाओं ने इसे आक्रामकता और शहरी-कस्बाती रूप दिया। जिला चमोली में मण्डल, फाटा, गोपेश्वर, रैणी और बाद में डूँगरी-पैन्तोली, भ्यूंढार, बछेर से नन्दीसैण तक; उधर टिहरी की हैंवलघाटी में अडवाणी सहित अनेक स्थानों और बडियारगड़ आदि क्षेत्रों तथा अल्मोड़ा में जनोटी-पालड़ी, ध्याड़ी, चांचरीधार (द्वाराहाट) के प्रत्यक्ष प्रतिरोधों में ही नहीं बल्कि नैनीताल तथा नरेन्द्रनगर में जंगलों की नीलामियों के विरोध में भी महिलाओं और युवाओं की असाधारण हिस्सेदारी रही।
दूसरी ओर सर्वोदयी कार्यकर्ताओं के साथ अनेक राजनैतिक कार्यकर्ताओं का भी योगदान रहा। वे जन भावना और चिपको की चेतना के खिलाफ जा भी नहीं सकते थे। जोशीमठ क्षेत्र में तो भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का महत्वपूर्ण योगदान था, जैसे उत्तरकाशी के लगभग विस्मृत बयाली (उत्तरकाशी) के आन्दोलन में था। इसी तरह कुमाऊँ में उत्तराखण्ड संघर्ष वाहिनी तथा उससे जुड़े लोगों ने आन्दोलन को एक अलग रूप दिया। नेतृत्व में सर्वोदयी या गैर राजनीतिक (किसी भी प्रचलित राजनीतिक दल से न जुड़े हुए) व्यक्ति भी उभरे तो यह इस आन्दोलन की एक स्वाभाविक प्रक्रिया थी। अन्ततः सभी की हिस्सेदारी का प्रयास सफल हुआ। चिपको में मतभेद, विभाजन और विखंडन का दौर तो बहुत बाद में गलतफहमियों, पुरस्कारों और 1980 के वन बिल के बाद शुरू हुआ।
यह सवाल उठना भी स्वाभाविक है कि और भी महिलाओं ने वनान्दोलन में हिस्सेदारी की तो गौरा देवी की ही इतनी चर्चा क्यों? इसका श्रेय चमोली के सर्वोदयी तथा साम्यवादी कार्यकर्ताओं को है। साथ ही गौरा देवी के व्यक्तित्व तथा उस ऐतिहासिक सुअवसर को भी, जिसमें वे असाधारण निर्णय लेने में नहीं चूकीं। कोई दशौली ग्राम स्वराज्य मण्डल पर यह आरोप लगाये कि उसने महिलाओं का इस्तेमाल किया तो यह सिर्फ पूर्वाग्रह ही कहा जायेगा। यदि चमोली की तीस महिलाएँ एक साथ ‘वृक्षमित्र’ पुरस्कार लेने दिल्ली गई तो इससे उनकी हैसियत ही नहीं सामुहिकता भी पता चलती है। महिलाओं की स्थिति सबसे संगठित और संतोषजनक (यद्यपि यह भी पर्याप्त नहीं कही जा सकती है) चमोली जिले में ही नजर आती है क्योंकि आन्दोलन और बाद के शिविरों में भी इतनी संगठित सामूहिकता कहीं और नहीं दिखती थी। लेकिन अपने मंगल दल के अलावा महिलाओं को व्यापक नेतृत्व नहीं दिया गया।
यह नहीं कहा जाना चाहिये कि इस हेतु महिलाओं के पास पर्याप्त समय नहीं था। अब वे जंगल के अलावा और विषयों पर भी सोचने-बोलने लगीं थीं। उन्हें अपने परिवार के पुरुषों से आन्दोलन या महिला मंगल दल में हिस्सेदारी हेतु भी लड़ना पड़ा था। इसके उदाहरण उत्तराखण्ड में सर्वत्र मिलते हैं। चमोली में अनेक जगह महिलाओं की महत्वपूर्ण भूमिका प्रकट हुई लेकिन नेतृत्व को झपटने या अग्रिम पंक्ति में आने की कोशिश करना- यह पहाड़ी महिलाओं के लिए संभव नहीं था पर अनेक बार तात्कालिक रूप से उन्होंने अपना नेतृत्व किया। रैणी, डूँगरी-पैन्तोली, बछेर ही नहीं चांचरीधार तथा जनोटी-पालड़ी इसके उदाहरण हैं। पुरुष नेतृत्व में महिलाओं की हिस्सेदारी या उनके नाम से इसे जोड़ने की होड़ थी। लेकिन यह सबको आश्चर्यजनक लगेगा कि राइटलाइवलीहुड पुरस्कार लेते हुए सुन्दरलाल बहुगुणा तथा इन्दु टिकेकर ने जो व्याख्यान दिये गये थे (हिन्दी रूप चिपको सूचना केन्द्र, सिल्यारा द्वारा प्रकाशित) उनमें गौरा देवी तो दूर चिपको की किसी महिला का भी नाम नहीं लिया गया था।
शेखर पाठक, संपादक पहाड़, ‘परिक्रमा’, तल्ला डांडा, तल्लीताल, नैनीताल-263002
पिछ्ले भाग
1. एक थीं गौरा देवी: एक माँ के बहाने चिपको आन्दोलन की याद – 1
2. एक थीं गौरा देवी: एक माँ के बहाने चिपको आन्दोलन की याद – 2
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aapka chota bhula badoni delhi
बहुत ही बढ़िया जानकारी मिली…
आपका बहुत बहुत धन्यवाद…