भारतीय पंचाग की कहानी

[ पिछ्ले अंक में हमने जाना कि कलैंडर का इतिहास कितना पुराना है। आइये जानिये कि भारतीय पंचाग का इतिहास क्या है? श्री देवेन्द्र मेवाड़ी जी नें यह आलेख खास अपना उत्तराखंड के पाठकों के लिये भेजा है। – प्रबंधक ]

vanibhushan-panchang-of-garhwal आइए भारतीय पंचांग यानी भारतीय कलैंडर के बारे में जानते हैं। हमारे देश में लगभग 5,000 वर्ष पहले वैदिक काल में समय की गणना का काम शुरू हो गया था। उन दिनों इस बात का ज्ञान हो चुका था कि चांद्र-वर्ष में 360 से कुछ कम दिन होते हैं क्योंकि एक चंद्र-मास में ठीक 30 दिन नहीं होते। सूर्योदय से सूर्योदय तक के काल को ‘सावन-दिन’ माना गया। तब सावन-मास और चांद्र मास का भी ज्ञान प्राप्त हो चुका था। बाद में नक्षत्र और फिर ‘तिथि’ का ज्ञान हुआ। अनुमान है कि शक संवत् से लगभग 1400 वर्ष पूर्व तक तिथि और नक्षत्र, समय के इन दो अंगों का ही ज्ञान था। उसके बाद करण, योग और वार का ज्ञान प्राप्त हुआ। इस तरह तिथि, नक्षत्र, वार, करण और योग, समय के इन पांच अंगों से ‘पंचांग’ यानी कलैंडर का विकास हुआ।

क्षेत्रीय आवश्यकताओं और धार्मिक तिथियों की गणना के लिए देश के विभिन्न प्रांतों में कई प्रकार के पंचांग बनाए गए जिनमें से अनेक पंचांग आज भी प्रचलित हैं। लेकिन, प्रशासनिक तथा नागरिक उद्देश्य के लिए संशोधित और मानक भारतीय राष्ट्रीय कलैंडर का प्रयोग किया जाता है।

हमारा राष्ट्रीय कलैंडर प्रोफेसर मेघनाद साहा जैसे समर्पित वैज्ञानिक के सतत प्रयासों का फल है। कलैंडर सुधार का सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक विश्वासों पर सीधा प्रभाव पड़ने का खतरा मोल लेते हुए भी उन्होंने कलैंडर में वैज्ञानिक सुधार का बीड़ा उठाया और हमारे कलैंडर को वैज्ञानिक आधार प्रदान किया।Meghnad_Saha_in_Berlin_1921

प्रोफेसर मेघनाद साहा ने भारतीय पंचांगों और कलैंडर सुधार की आवश्यकता पर ‘जर्नल ऑफ रॉयल एस्ट्रोनामिकल सोसाइटी’, ‘जर्नल ऑफ एशियाटिक सोसाइटी’ और ‘साइंस एंड कल्चर’ जैसी प्रसिद्ध विज्ञान पत्रिकाओं में लेख लिख कर इस विषय की ओर सरकार और आम लोगों का ध्यान आकर्षित किया। कलैंडर से संबंधित उनके कुछ लेख इस प्रकार थेः ‘कलैंडर (पंचांग) सुधार की आवश्यकता’, ‘कालांतर में संशोधित कलैंडर तथा ग्रेगोरीय कलैंडर’, ‘भारतीय कलैंडर का सुधार’, ‘विश्व कलैंडर योजना’। ये सभी लेख ‘साइंस एंड
कल्चर में प्रकाशित हुए। ‘प्राचीन एवं मध्ययुगीन भारत में काल निर्धारण की विभिन्न विधियां तथा शक संवत् की उत्पत्ति’ जर्नल ऑफ एशियाटिक सोसाइटी में छपा। उन्होंने एशियाटिक सोसाइटी में ‘शक संवत् की शुरुआत’ पर व्याख्यान दिया। इन प्रयासों के परिणामस्वरूप 1952 में वैज्ञानिक एवं औद्योगिक अनुसंधान परिषद् ने एक कलैंडर सुधार समिति गठित की। समिति को देश के विभिन्न प्रांतों में प्रचलित पंचांगों का अध्ययन करके सरकार को सटीक वैज्ञानिक सुझाव देने की जिम्मेदारी सौंपी गई ताकि पूरे देश में एक समान नागरिक कलैंडर लागू किया जा सके। प्रो. मेघनाद साहा इस कलैंडर सुधार समिति के अध्यक्ष नियुक्त किए गए। समिति के सदस्य थेः ए.सी.बनर्जी, के.के.दफ्तरी, जे.एस.करंडीकर, गोरख प्रसाद, आर.वी.वैद्य तथा एन.सी. लाहिड़ी।

पंचांगों में सबसे प्रमुख त्रुटि थी वर्ष की लंबाई। पंचांग प्राचीन ‘सूर्य सिद्धांत’ पर आधारित होने के कारण वर्ष की लंबाई 365.258756 दिन की होती है। वर्ष की यह लंबाई वैज्ञानिक गणना पर आधारित सौर वर्ष से .01656 दिन अधिक है। प्राचीन सिद्धांत अपनाने के कारण ईस्वी सन् 500 से वर्ष 23.2 दिन आगे बढ़ चुका है। भारतीय सौर वर्ष ‘वसंत विषुव’ औसतन 21 मार्च के अगले दिन मतलब 22 मार्च से शुरु होने के बजाय 13 या 14 अप्रैल से शुरु होता है। दूसरी ओर, जैसे कि पहले बताया गया है, यूरोप में जूलियस सीजर द्वारा शुरू किए गए ‘जुलियन कलैंडर’ में भी वर्ष की लंबाई 365.25 दिन निर्धारित की गई थी जिसके कारण 1582 ईस्वी आते-आते 10 दिन की त्रुटि हो चुकी थी। तब पोप ग्रेगरी तेरहवें ने कलैंडर सुधार के लिए आदेश दे दिया कि उस वर्ष 5 अक्टूबर को 15 अक्टूबर घोषित कर दिया जाए। लीप वर्ष भी स्वीकार कर लिया गया। लेकिन, भारत में सदियों से पंचांग यानी कलैंडर में इस प्रकार का कोई संशोधन नहीं हुआ था।

उन्होंने विश्व कलैंडर योजना का भी सुझाव दिया और 1954 में जेनेवा में आयोजित यूनेस्को के 18वें अधिवेशन में ‘विश्व कलैंडर’ सुधार के लिए प्रस्ताव भेजा। कलैंडर सुधार समिति ने 1955 में अपनी रिपोर्ट प्रकाशित की। समिति ने प्रशासनिक तथा नागरिक कलैंडर के लिए महत्वपूर्ण संस्तुतियां कीं। इन संस्तुतियों के अनुसार राष्ट्रीय कलैंडर में शक संवत् का प्रयोग किया जाना चाहिए। इसकी गणनाएं शक संवत् से की जाती हैं। शक संवत् की प्रथम तिथि ईस्वी सन् 79 के वसंत विषुव से प्रारंभ होती है। हमारे राष्ट्रीय कलैंडर में शक संवत् 1879 (अठारह सौ उनासी) के चैत्र मास की प्रथम तिथि को आधार माना  गया है जो ग्रेगोरीय कलैंडर की गणना के अनुसार 22 मार्च ईस्वी सन् 1957 है। यानी, हमारा संशोधित राष्ट्रीय कलैंडर 22 मार्च 1957 से शुरू होता है।

Mewar_Panchang समिति ने सुझाव दिया कि वर्ष में 365 दिन तथा लीप वर्ष में 366 दिन होंगे। लीप वर्ष की परिभाषा देते हुए सुझाव दिया गया कि शक संवत् में 78 जोड़ने पर जो संख्या मिले वह अगर 4 से विभाजित हो जाए तो वह लीप वर्ष होगा। लेकिन, अगर वर्ष 100 का गुणज तो है लेकिन 400 का गुणज नहीं है तो वह लीप वर्ष नहीं माना जाएगा। राष्ट्रीय परंपरागत भारतीय मास 12 हैं :  चैत्र, वैसाख, ज्येष्ठ, आषाढ़, श्रावण, भाद्र, आश्विन, कार्तिक, अग्रहायण, पौष, माघ और फाल्गुन। समिति ने यह भी संस्तुति की कि वर्ष का प्रारंभ वसंत विषुव के अगले दिन से होना चाहिए। कलैंडर में चैत्र मास वर्ष का प्रथम मास होगा। चैत्र से भाद्र तक प्रत्येक मास में 31 दिन और आश्विन से फाल्गुन तक प्रत्येक मास में 30 दिन होंगे। लीप वर्ष में, चैत्र मास में 31 दिन होंगे अन्यथा सामान्य वर्षों में 30 दिन ही रहेंगे। लीप वर्ष में चैत्र मास की प्रथम तिथि 22 मार्च के बजाय 21 मार्च होगी। समिति ने कहा कि जो उत्सव और अन्य महत्वपूर्ण तिथियां 1400 वर्ष पहले जिन ऋतुओं में मनाई जाती थीं, वे 23 दिन पीछे हट चुकी हैं। फिर भी धार्मिक उत्सवों की तिथियां परंपरागत पंचांगों से ही तय की जा सकती हैं। समिति ने धार्मिक पंचांगों के लिए भी दिशा निर्देश दिए। ये पंचांग सूर्य और चंद्रमा की गतियों की गणनाओं के आधार पर तैयार किए जाते हैं। भारतीय मौसम विज्ञान विभाग प्रति वर्ष भारतीय खगोल पंचांग प्रकाशित करता है। छुट्टियों की तिथियों की गणना इसी के आधार पर की जाती है।

हमारे राष्ट्रीय कलैंडर के लीप वर्ष विश्व भर में प्रचलित ग्रेगोरी कलैंडर के समान हैं। ग्रेगोरीय कलैंडर में 21 मार्च की तिथि वसंत विषुव यानी वर्नल इक्विनॉक्स मानी गई है।
देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरु ने कलैंडर सुधार समिति की रिपोर्ट की प्रस्तावना में लिखा था, “हमने स्वतंत्रता प्राप्त कर ली है। यह वांछनीय होगा कि हमारे नागरिक सामाजिक और अन्य कार्यों में काम आने वाले कलैंडर में कुछ समानता हो और इस समस्या को वैज्ञानिक दृष्टिकोण से लिया जाना चाहिए।”

[अगले अंक में जानिये दूसरे देशों के कलैंडरों के बारे में]

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3 Thoughts to “भारतीय पंचाग की कहानी”

  1. नई पीढी के लोगों के लिये यह बहुत ज्ञानवर्धक जानकारी है. उत्तराखण्ड में रामदत्त जोशी जी का पंचाग प्रचलित है. उनके बारे में जानने के लिये कृपया इस लिंक पर जायें.

    http://www.merapahad.com/ram-dutt-joshi/

  2. आपका यह लेख बहुत पसन्द आया. अगली कड़ी की प्रतिक्षा है.

  3. Ours is essentially a lunar calendar. We are marvelous to maintain and correct dates as per various parameters of movement of moon. Our preceding masters constituted 12 months to maintain a balance between Lunar and Solar rotation and revolution. Moon is "mind" whereas sun is "material".The seasons are governed by Solar movements, therefore it is suggested that we make correction as per equinox (solar parameter). But, it has to be considered on various pros and cons.

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