लाइकेन

lichen दोस्ती हो तो लाइकेन जैसी! हां दोस्तो, प्रकृति में लाइकेन अटूट दोस्ती का बेमिसाल नमूना है। इसमें दो दोस्त अटूट बंधन में बंध जाते हैं। दोस्ती का ऐसा बंधन जो जीते-जी टूट नहीं सकता। इस दोस्ती के कारण उनको पहचानना तक कठिन हो जाता है। इस दोस्ती में वे बिल्कुल नया रूप रख लेते हैं और ‘लाइकेन’ बन जाते हैं।

जीवन भर एक दूसरे का साथ निभाने वाले ये दो दोस्त हैं- शैवाल यानी एल्गी और फफूंदी यानी फंजाई। ये दोनों ही पौधे हैं। फफूंदी रंगहीन होती है और बारीक धागों के रूप में उगती है। शैवाल की नन्हीं हरी कोशिकाएं होती हैं। तुम जानते हो, जैसे हर मकान एक-एक ईंट से बनता है, वैसे ही हर जीव का शरीर नन्हीं कोशिका रूपी ईंटों से बनता है। शैवाल की इन नन्हीं कोशिकाओं में हरा रंग होता है। वही रंग, जो हरे पेड़-पौधों में होता है। यानी, क्लोरोफिल। अब होता यह है कि फफूंदी अपने बारीक धागों के जाल से शैवाल को घेर लेती है। उनके इस गठबंधन से एक नया पौधा बन जाता है। यही पौधा लाइकेन कहलाता है।

क्या तुम कभी घूमने के लिए पहाड़ों पर गए हो? वहां चट्टानों और पेड़-पौधों के तने या टहनियों को गौर से देखा? दीवारों और छतों पर नजर डाली?

अगर तुमने सचमुच ध्यान देकर देखा होगा तो उन पर जमी हुई सूखी, पत्थर के ही रंग की पपड़ी जरूर देखी होगी। नहीं देखी तो अगली बार जरूर देखना। दोस्तो, वही सूखी पपड़ियां लाइकेन हैं। इनका रंग धूसर, हलका हरा भूरा या पीला होता है। और हां, ये केवल सूखी पपड़ी जैसे ही नहीं, सुंदर झुमकों जैसे भी होते हैं। पेड़ों की शाखाओं पर उगे रहते हैं। लाइकेन का एक पौधा तो बुजुर्गों की दाढ़ी की तरह भी होता है। इसलिए अंग्रेजी में उसे ‘ओल्ड मैंस बियर्ड’ कहते हैं। वे टहनियों से लंबे-लंबे बालों की तरह लटके रहते हैं।

फफूंदी और शैवाल की इस दोस्ती का कमाल तो देखो। रूखे-सूखे या पथरीले इलाकों में, या फिर रेगिस्तानों और बेहद ठंडे इलाकों में न तो फफूंदी उग सकती है और न शैवाल। न ये अलग-अलग रह कर अपने बूते पर रेगिस्तानों में उग सकते हैं। लेकिन, दोस्ती निभा कर जब ये लाइकेन बन जाते हैं तो कठिन से कठिन परिस्थिति में भी आराम से उगते हैं। उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव प्रदेश से लेकर गगनचुंबी पथरीले पहाड़ों, और तपते रेगिस्तानों तक में उग जाते हैं। ध्रुव प्रदेश की कड़ाके की सर्दियों में और कुछ नहीं उग पाता है। मगर ‘रेनडियर मॉस’ नामक लाइकेन मजे से उगते हैं। और तो और, कठिन से कठिन परिस्थिति में जी लेने वाले लाइकेन पर अंतरिक्ष यात्रा का भी कोई बुरा असर नहीं पड़ा। धरती पर लौटने के बाद उसे बिल्कुल ठीक पाया गया। अब तक दुनिया में लाइकेन की 18,000 से 20,000 तक जातियां पाई गई हैं। lichen_old_mans_beard

जानते हो, लाइकेन के पौधों को भोजन कहां से मिलता है? फफूंदी और शैवाल दोनों दोस्त भोजन जुटाते हैं। फफूंदी अपने धागों के जाल में हवा, कोहरा, ओस या बारिश से स्पंज की तरह पानी सोख लेती है। यह पानी वह शैवाल को भी देती है। सूखे मौसम में फफूंदी और शैवाल इसी तरह बटोरे हुए पानी पर जीवित रहते हैं। साथी शैवाल अपने हरे रंग से धूप में भोजन बना लेता है। भोजन का हिस्सा वह फफूंदी को भी देता है। अगर यह भोजन न मिले तो फफूंदी जी नहीं सकती। यानी, दोनों दोस्त एक-दूसरे की मदद करते हैं।

लाइकेन उगते हैं, मगर बहुत धीरे-धीरे। सबसे तेज उगने वाले लाइकेन भी लंबाई में साल भर में 30 मिलिमीटर से अधिक नहीं बढ़ पाते। जहां लाइकेन उगते हैं, वहां उनसे हलका अम्ल यानी तेजाब निकलता है। इस कारण उस स्थान पर पत्थर भुरभुरा हो जाता है। वहां पर थोड़ी-सी मिट्टी बन जाती है। इस तरह लाइकेन के कारण मिट्टी बनती रहती है। वे जब सूखते हैं तो उस मिट्टी में दूसरे पौधे उग जाते हैं। इस तरह लाइकेन पत्थरों और चट्टानों में मिट्टी बनाते हैं। इस कारण दूसरे पौधों के उगने की राह खुल जाती है। और हां, लाइकेन लंबे समय तक जीवित रहते हैं। आर्कटिक क्षेत्र में, ग्रीनलैंड के पश्चिमी भाग में एक ऐसा लाइकेन मिला है जिसकी उम्र 4,500 वर्ष आंकी गई है। वैज्ञानिक उसके आधार पर यह पता लगा रहे हैं कि वहां ग्लेशियर कब से हैं और कब वहां के पहाड़ बर्फ से ढक गए।

सूखा पड़ने पर तो समझ लो लाइकेन समाधि लगा लेते हैं। जीवित रहने के लिए अपने भीतर थोड़ा पानी बचा लेते हैं और अपनी बढ़वार रोक देते हैं। फिर कभी जब कोहरा घिर आता है, रिमझिम वर्षा होती है, तब लाइकेन की फफूंदी अपने धागों के जाल में स्पंज की तरह पानी सोख लेती है। अपने वजन से भी दो-तीन गुना ज्यादा पानी जमा कर लेती है। तब इसका साथी शैवाल अपने हरे रंग, पानी, सूरज की रोशनी और हवा में मौजूद कार्बन डाइऑक्साइड गैस की मदद से भोजन बनाना शुरू कर देता है। यह भोजन फफूंदी को भी मिलता है और इस तरह लाइकेन फिर पनपने लगता है।

अच्छे दिनों में लाइकेन खूब बढ़ते-पनपते हैं। फफूंदी में नए सूक्ष्म बीजाणु बनते हैं। वे हवा में बिखर जाते हैं। हवा के झौंके उन्हें नई जगहों पर ले जाते है। वे वहां पत्थरों या पेड़ों की छाल पर टिक जाते हैं और उगने लगते हैं। वे शैवाल की कोशिकाओं का साथ पाकर दोस्ती के नए गठबंधन में बंध जाते हैं। शैवाल की कोशिकाएं भी बंट कर अपनी संख्या बढ़ाती हैं। कुछ लाइकेनों से नन्ही अंगुलियों जैसी कलियां भी निकलती हैं और टूट कर अलग हो जाती हैं। इस सभी तरीकों से नए लाइकेन बन जाते हैं।

lichens जानते हो, लाइकेन क्या काम आते हैं? इन्हें कीड़े-मकोड़े और घोंघें तो खाते ही हैं, कड़ाके की ठंड में रेनडियर और कैरिबू हिरन भी इन्हें ही खाकर जीवित रहते हैं। दोस्तो, बाइबिल में ‘मन्ना’ नामक रोटी का वर्णन किया गया है। कुछ विद्वान कहते हैं कि वह शायद लाइकेन से ही बनी थी। जापान में भी कुछ प्रकार के लाइकेन खाए जाते हैं। हमारे कई बाजारों में ये मसाले के रूप में बिकते हैं।

लाइकेन कई प्रकार की देशी दवाइयां बनाने के भी काम आते हैं। लोग सदियों से सिरदर्द, बुखार और सांस के रोगों के उपचार के लिए इनका प्रयोग कर रहे हैं। अब आधुनिक दवाइयों में भी इनका उपयोग किया जा रहा है। इनसे कुछ एंटिबायोटिक दवाइयां तैयार की जाती हैं। वे यक्ष्मा यानी टी.बी और चर्म रोगों के इलाज में काम आती हैं।

लाइकेन से सुगंधित और सुंदर रंग भी बनाए जाते हैं। इनकी सुगंधि का प्रयोग साबुन और इत्र बनाने में किया जाता है। इनसे भूरा, लाल, गेरूआ और नीला रंग बनाया जाता है। इन रंगों का इस्तेमाल कपड़े रंगने के लिए किया जाता है। प्राचीनकाल में यूनान के लोग और अमेरिका के मूल निवासी इन्हीं रंगों से कपड़े रंगते थे। स्कॉटलैंड का ऊनी कपड़ा ‘हैरिस ट्वीड’ बहुत प्रसिद्ध है। आज भी इसे वहां के लाइकेनों के रंग से ही रंगा जाता है। lichen-stone

अच्छा, रंग की बात पर रंगीन कागज याद आ गया, जिसे ‘लिटमस पेपर’ कहते हैं। कभी देखा है तुमने लिटमस पेपर? बड़ी कक्षा में जाओेगे तो रसायन विज्ञान की प्रयोगशाला में देखोगे। इससे किसी भी घोल में अम्ल यानी तेजाब और क्षार का पता लगाते हैं। अगर तुम लिटमस पेपर की नीली पट्टी को अम्ल के घोल में डुबाओगे तो वह लाल हो जाएगी। अगर लिटमस पेपर की लाल पट्टी को क्षार में डुबाओगे तो वह नीली हो जाएगी! लेकिन, मजेदार बात यह है कि रंगीन लिटमस पेपर के ये रंग लाइकेन से ही बनते हैं! 

पेड़ों, पत्थरों और पहाड़ों पर उगने वाले ये अनोखे पौधे देखने में भले ही रूखे-सूखे लगते हैं, लेकिन दोस्तो ये बहुत संवेदनशील होते हैं। साफ हवा-पानी में खूब पनपते हैं। लेकिन, प्रदूषण से इनका दम घुटने लगता है। इनका जीना मुश्किल हो जाता है। इसलिए लाइकेन से प्रदूषण का साफ पता लग जाता है। जहां प्रदूषण नहीं है, वहां लाइकेन खूब उगते हैं, जहां प्रदूषण थोड़ा कम है, वहां लाइकेन भी थोड़ा कम उगते हैं। लेकिन, जहां बहुत प्रदूषण है, वहां लाइकेन नहीं उगते। हमें बताना दोस्तो, जहां तुम रहते हो क्या वहां लाइकेन उगते हैं? हम वहां की हवा का हाल समझ जाएंगे। समझ जाएंगे कि तुम कितनी साफ हवा में सांस ले रहे हो। तुम जब कभी जहां भी जाओ, वहां हवा में घुले जहर का पता जरूर लगाना। लाइकेन तुम्हारी मदद करेंगे। ये हमारे-तुम्हारे भी दोस्त हैं।

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3 Thoughts to “लाइकेन”

  1. rajendra kimothi

    mewari sir thanks for ur article on lichens.a mutual relation between 2 species.

  2. Abhishek soni

    Thanks mewari sir,aaj maine bahut good and bilkul nayi jaankari jisse mujhe bahut prasannta hui.main ise apne dosto & cousins mein share karooga

  3. upendra

    bahut-bahut dhanyabaad guru jee …..i am an UPSC aspirant ..was so much confused about lichens ,fungus and algea …but today i got it clear also was feeling like a child ….thank yuo sir

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