बेचारा गुजारा …

[देवेन्द्र मेवाड़ी जी द्वारा उनके गांवों के किस्से हमें सुनते रहे हैं। उनकी तुंगनाथ यात्रा का रोचक वर्णन भी काफी लोगों ने पसंद किया। उनके श्यूँ बाघ के किस्से श्यूँ बाघ, देबुआ और प्यारा सेतुआ…., ओ पार के टिकराम और ए पार की पारभती, चिलम की चिसकाटी व बकरी चोर, श्यूं बाघ व नेपाली ‘जंग बहादुर’ , अब कहां रहे वैसे श्यूं-बाघ भी आप पढ़ चुके हैं। आज वह लेकर आये हैं गांव के गोरु बाछों की कहानी। इसका पहला भागदूसरा भाग आप पढ़ चुके हैं, प्रस्तुत है तीसरा भाग : प्रबंधक]

bailon-kee-jodiसेतुवा का जोड़ीदार था गुजारा बल्द। अब बूढ़ा और कमजोर हो गया था। उस दिन चील-क्वाटा की ऊंची चट्टान के ऊपर काफल के पेड़ के पास उसका पैर रपटा। वह संभल नहीं पाया। शायद पीछे की हड्डी टूट गई। उस दिन गोरू-भैंसें ददा के साथ गईं थीं। घर लौट कर उन्होंने बताया, “गुजारा रपटा तो फिर उठ ही नहीं पाया बेचारा।”

“तो तुमने क्या किया?” बाज्यू ने चौंक कर पूछा।

“क्या करता? घास काट कर मुंह के पास रख आया। भूखा तो नहीं मरेगा। आंसू ढुलका रहा था।…बस, रात में बाघ-वाघ न आए।”

“शिबौ-शिब” भौजी ने आंखें पौंछी।हमने रात आंखों में काटी। सुबह मैं, जैंतुवा, पनुदा भागकर पलि-धार गए। गुजारा भीड़े के नीचे गल्ली में पड़ा था। उसने हमें देख कर पहचाना। हमने आसपास से हरी कोमल घास तोड़ी। कुछ तिनाड़ उसे खिलाए। उसने वे तिनाड़ खाए। हमारी आंखों में देखा और आंसू की बूंदें ढुलका दीं।

हम पांच-छह दिन तक सुबह-शाम उसके पास जाते रहे। गुजारा गर्दन मोड़ कर सिर घुटनों में टिकाए पड़ा रहता। हमारी आवाज सुन कर धीरे से सिर उठाता। कान हिलाता और आंसू बहा देता। हम देर तक उसके पास बैठे रहते। लौटते तो वह कातर आंखों से हमें देख रहा होता। शायद वह भी समझता था कि और कुछ किया भी नहीं जा सकता। घर के लोग मिलने आ जाते हैं, वह इसी में खुश था। कभी ददा देख आते, कभी भौजी और कभी बाज्यू। इसी तरह चार-छह दिन बीत गए।

बाज्यू ने कहा, “ज्योनै छि। मैंने उसकी आंखों में देख कर कहा- तूने हमारा बहुत साथ दिया गुजारा। उसकी पीठ पर तीन बार थपकी देकर बचन दिया, ‘चल तेरा जो भी रीन था सब तर गया! तर गया! तर गया! अब तू शांति से जा गुजारा…’ अभी मेरा हाथ उसकी पीठ पर ही था कि उसने लंबी सांस भर कर आंखें पलट दीं। परान उड़ गए।…सच्चा बल्द था बेचारा।”

हम लोगों की आंखें भर आईं।

बाज्यू रोज कहते, “खाली दुःख भोग रहा है गुजारा। अभी परान बचे हुए हैं। बेबस हो गया है बेचारा। हमारे हाथ का भी कुछ नहीं हुआ। क्या करें?” वे सोच में पड़ जाते। कहते, “उमर भर साथ निभाया। छोटा-सा बाछा था। फिर बहड़ हुआ। मैंने ही अपने हाथ से हलियाया। शुरू में कंधे पर जुआ रखते ही अलज्याट (उलझन) मान कर बिदकता था। फिर आदत पड़ गई।”

ददा ने गुजारा की बात आगे बढ़ाई, “क्या जोड़ी थी गुजारा और सेतुवा की! हल चलाते समय टुपू-टुप चलते रहते खेत में। हो ss ट…ह s सुनते ही दांई ओर को अपने आप मुड़ जाते। सेतुवा को ककोड़ में श्यूं ने मार दिया, गुजारा की ये हालत हो गई है।”

बाज्यू ने कहा, “खेत जोतने में, दन्याला लगाने में, दैं मांड़ने में किसी भी काम में कभी परेशान नहीं किया। सुख-दुख में साथ दिया। आज मजबूर हो गया है। करें भी तो क्या करें? बेचारा बहुत दुख पा रहा है। पिछले जनम का ‘रीन’ (ऋण) तारने आया होगा हमारे पास।”

रोज धुकधुकी लगी रहती थी कि गुजारा का हुआ क्या। हम उसके पास जाते। वह रोज की तरह सिर उठाता। हमारे दिए तिनाड़ मुंह में लेता। बहुत कमजोर हो गया था गुजारा।

एक दिन बाज्यू ने उसके पास से लौट कर कहा, “मुक्ति है गैछ गुजारा कि।”

“तुमार जान् ले ज्योनै छि कि मरि गैछ?” ददा ने पूछा।

बाज्यू ने कहा, “ज्योनै छि। मैंने उसकी आंखों में देख कर कहा- तूने हमारा बहुत साथ दिया गुजारा। उसकी पीठ पर तीन बार थपकी देकर बचन दिया, ‘चल तेरा जो भी रीन था सब तर गया! तर गया! तर गया! अब तू शांति से जा गुजारा…’ अभी मेरा हाथ उसकी पीठ पर ही था कि उसने लंबी सांस भर कर आंखें पलट दीं। परान उड़ गए।…सच्चा बल्द था बेचारा।”

हम लोगों की आंखें भर आईं।

खेती के लिए अब कजारा और चन्या की नई जोड़ी तैयार हुई। कजारा पहले ही हलियाया जा चुका था। चन्या हलियाया गया। आजाद रहने की आदत वाले हर बहड़ की तरह चन्या ने भी शुरू में खूब चड़फड़ाट मचाई। परेशान हुआ, बिदका, फिर उसे भी आदत पड़ गई।

गोरू-भैंसों को गर्दन पर हमारी अंगुलियों से खुजलाना बहुत अच्छा लगता था। कुछ तो पास आकर खड़ी हो जातीं और गर्दन ऊपर कर देतीं, जैसे कह रही होंµ लो हमारी गर्दन तो खुजला दो! अंगुलियां चलाने या हथेली से सहलाने पर वे गर्दन को वैसे ही ऊपर उठाए रखतीं। वे हमारी हर बात को समझती थीं। हमारी आवाज पहचानती थीं। यहां तक कि पैरों की आवाज भी पहचानती थीं। ददा तो अगर कहीं और किसी से बात कर रहे हों और नीचे खेतों से वे उनकी आवाज सुन लें तो वहीं से अड़ाने लगती थीं….अ मां sssss आं s …

हम भी उनकी आवाज का मतलब समझ लेते थे। अगर भैंसों को भूख लग जाती तो अड़ातीं…ह मां ss। अगर थान पर बंधी भैंसों को चरने के लिए खोलने में देर हो जाती तो वे इसी आवाज को लंबा कर देतीं…हमां sss ह, जैसे कह रही हों- बहुत देर हो गई, खोलते क्यों नहीं! ये नहीं कि सभी भैंसें अड़ाने लगें। एक अड़ाती। थोड़ी देर बाद कोई और अड़ाती। हमें पता लग जाता। बाज्यू कहते, “क्यों, गोरू-भैंस अभी तक खोले नहीं? दोपहर हो गई!” कभी किसी भैंस का बच्चा आगे-पीछे रह जाता तो वह बैचेनी से इधर-उधर देखकर जल्दी-जल्दी अड़ाती… ह्वैं sss ह्वैं ss…। अपनी मां को देखते ही चुप हो जाती। खुद भटक जाने पर बहुत लंबी आवाज में अड़ाती…अमां ssss ह्…अमां sssss ह्…। और, अगर कहीं आसपास डर-भर महसूस करती या तेज आंधी में फंसतीं तो अड़ातीं…ह्आं ssss ह्।

गाएं कुछ कहना चाहतीं तो अड़ातीं अ मां ss ह्! और ददा समझ जाते, गोरू-बाछों को भूख लग गई। बछिया न दिखने पर गाय कई बार अड़ाती…अमां sss sss आं..

[जारी रहेगा …]

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4 Thoughts to “बेचारा गुजारा …”

  1. पशु प्रेम से आपने हमै ओत प्रोत कर दिया मेरा भी हिया (मन) भर आया है गुजारा की कहानी पढकर। खैर इससे पहले वेचारा का जोडीदार सेतुवा की कहानी ने भी इसी तरह का हिया भरा था मेरा।
    पशु प्रेम से मै भी बहुत जुडा हुआ रहा खासकर बचपन मे। मेरे साथ भी ऐसा बहुत बार हुआ पर क्या करें भुल जाना तो इंसान की फितरत है।

  2. Gajendra Bisht

    sir aapne to muje mere bachpan ki yaad dila di isse mujhe apne binu beil ki yad taja ho gayi . fine sir very fine

  3. बहुत ही बढ़िया आलेख और चित्र भी…मर्मस्पर्शी …
    आभार

  4. NAVIN CHANDRA PANT

    MEWARI JI KE JETNI BHI TAREF KARU KAM HAI GHAR MAI MAINE SABKO PAD KAR SUNAYA . SABHI BHAV BHIVOR HO GHAYE , BHAGWAN BANAYE RAKHE MEWARE JI KO TAKE HUM YU HE PADTE RAHAIN UNKO* SUBHKAMNAIN*

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