अब कहां रहे वैसे श्यूं-बाघ

[पहाड़ों में बाघ और मानव एक साथ रहते आये हैं। इन बाघों को कुकुर बाघ, श्यूँ बाघ के नाम से भी जाना जाता रहा है। कभी कभी बाघ आदमखोर भी हो जाते हैं। नरेन्द्र सिंह नेगी जी ने “सुमा हे निहोणिया सुमा डांडा ना जा”  गीत में भी इसी तरह की एक घटना का जिक्र किया है। देवेन्द्र मेवाड़ी जी अपने गांवों के किस्से हमें सुनाते रहे हैं। हाल ही में उनकी तुंगनाथ यात्रा का रोचक वर्णन भी काफी लोगों ने पसंद किया। आज से वह हमें अपने गांव के श्यूँ बाघों के किस्से सुना रहे हैं। प्रस्तुत है उन्हीं किस्सों की पहली कड़ी…. : प्रबंधक]

tiger आपने भी सुना होगा, अब तो देश भर में केवल 1411 ही बाघ रह गए हैं। उन्हें बचाने की हर संभव कोशिश की जा रही है। लेकिन, एक जमाना था, जब और ठौर तो पता नहीं, लेकिन हमारे गांव, इलाके में ही खूब श्यूं-बाघ होते थे। उनकी भारी डर-भर होती थी। वे पालतू जानवरों को तो मारते ही थे, कभी-कभी आदमखोर भी हो जाते थे। मगर रहना तो वहीं था- उन्हीं गांवों में, उन्हीं जंगलों में। आदमियों को भी और श्यूं-बाघों को भी। तो रहे, जैसे भी रहे। और, उनके किस्से बनते गए….सुनेंगे आप?

द, श्यूं-बांघों के तो किस्से ही किस्से ठैरे मेरे गांव में। मुझे जैंतुवा ने कई बार रात में जंगल से आती ‘छां’ फाड़ने की गज्यांठि की जैसी घुर्र, घुर्र, घुर्र की आवाज सुना कर बताया, “ददा, बाघ बासनारो।” पहाड़ के गांव में थे तो बकरियां और कुत्ते चुराने वाले वे छोटे-मोटे बाघ सचमुच मट्ठा मथने की फिरकी की तरह ही घुर्राते थे। लेकिन, सर्दियों में जब हम श्यूं-बाघों के असली इलाके मतलब अपने सर्दियों के गांव ककोड़ जाते थे और भुंयारे यानी एक ही तल्ले के कोप के पत्थरों से बने अपने मकान या घास-फूस के मजबूती से बने बड़े से गोठ में रहते थे तो रात को पास ही से निकलती कच्ची सड़क पर, साज के पेड़ के सामने, उध्योंन के बड़े पत्थर के पास रूक कर दहाड़ते श्यूं की दिल दहलाने वाली आवाज सुनते रहते थे….आ..ऊ sss । टांड़ यानी दुछत्ती में सोए हुए हम तो सहम ही जाते थे, नीचे सो रही हमारी गाय-भैंसें भी सिहर उठती थीं। न हम मुंह से कोई आवाज निकालते थे, न हमारी गाय-भैंसें। वे तो बस परेशान होकर दांए-बाएं सिर हिलातीं या डर कर थोड़ी देर खड़ी हो जाती थीं। श्यूं शायद गोठों की ओर से आती जानवरों और आदमियों की मिली-जुली गंध सूंघ कर जता जाता था कि मुझे पता है तुम लोग यहां हो। फिर आगे कनौट की संकरी गीली गली से होकर उस पार के जंगलों में चला जाता था। अगली सुबह गीली मिट्टी में बड़े-बड़े खोज देख कर पता लग जाता कि रात में सड़क से कौन गुजरा। श्यूं अकेला था या उसका पूरा परिवार भी साथ था, या केवल  मादीन अपने बच्चे लेकर जा रही थी-सब कुछ पता लग जाता।

आगे शाल, शौंर्यां और भेष आदि के पेड़ों का जंगल था। मैंने शाल के वे ऊंचे पेड़ देखे थे, जिन पर शिकारियों के लिए मचान बांधा जाता था ताकि रात में अगर श्यूं कनौट से निकले तो उनकी बंदूक की ज़द में आ जाए। पता नहीं, उन शिकारियों को कोई श्यूं मिला या नहीं।

उन दिनों, कालाआगर से ककोड़ तक यानी मेरे दोनों गांवों के बीच आदमी और श्यूं-बाघों के जीने की जंग जारी थी। दोनों अपने अस्तित्व के लिए लड़ रहे थे। कभी पलड़ा एक ओर झुकता तो कभी दूसरी ओर। कभी शेर जीतता, कभी आदमी। आप विश्वास करेंगे, एक बार गांव के ही मेरे एक रिश्तेदार पहाड़ में हमारे घर में आए। खाना बना। उन्हें खाने के लिए बुलाया। चीड़ के छिलके के हलके उजाले में मैं देख रहा था, वे रोटी का ग्रास चबाते और गले पर हाथ रख कर निगल लेते। ठुलि भौजी ने पूछा, “क्या हुआ? ऐसे क्यों खा रहे हैं?”

वे बोले, “कुछ नहीं, श्यूं ने दाड़ दिया था। असत्ती दुश्मन ने गला फाड़ दिया!” शेर के नाखूनों से उनके गले में छेद हो गया था! पता लगा, वे जैराम दा थे।

आगे-आगे राम सिंह, बीच में घोड़ा और पीछे श्याम सिंह। हल्द्वानी जा रहे ठैरे। उसने उन तीनों को आते हुए देखा होगा। पास आते ही उन पर छलांग लगाई और श्याम सिंह को दबोच लिया। श्याम सिंह की चीख से घोड़ा बिदका और राम सिंह ने पीछे पलट कर देखा। देखा कि श्यूं श्याम सिंह को घसीट रहा है। कोई और जैसा होता तो शायद डर कर भाग जाता। लेकिन, वे डर कर नहीं भागे। बस, लाठी उठाई और टूट पड़े श्यूं पर। ले दनादन, ले दनादन। राम सिंह मजबूत काठी के आदमी थे। श्यूं सह नहीं पाया उनकी लाठी की मार। दहाड़ मार कर झाड़ियों में घुस गया।

बकण्या गांव के सोबन सिंह अपनी सैंनी (पत्नी) को श्यूं के पंजों से छुड़ा लाए ठैरे। श्यूं उनकी सैंनी को नीचे की ओर घसीटता और वे ऊपर को खींचते। आखिर श्यूं हार गया। उनकी न जाने कितनी गाय-भैंसें श्यूं ने मार दी ठैरीं। वे दिन थे, जब माल-ककोड़ निपट जंगल हुआ। तब गिने-चुने परिवार ही वहां रहते थे।

और, टकार के रमदा? रमदा तो अपनी घिंगारू की लाठी से श्यूं को पीट-पीट कर घायल श्याम सिंह को छुड़ा लाए ठैरे! गाजा से अद्वाड़ को जाने वाली सड़क आगे चल कर दो-फाट हो जाती थी। एक रास्ता अद्वाड़ को जाता था और दूसरा हल्द्वानी को वाया हैड़ाखान। घने जंगल से गुजरते अद्वाड़ के रास्ते में तो श्यूं ने न जाने कितने लोग मारे ठैरे, लेकिन उस दिन वह दो-फाट से थोड़ा आगे झाड़ी में घात लगा कर बैठा होगा। आगे-आगे राम सिंह, बीच में घोड़ा और पीछे श्याम सिंह। हल्द्वानी जा रहे ठैरे। उसने उन तीनों को आते हुए देखा होगा। पास आते ही उन पर छलांग लगाई और श्याम सिंह को दबोच लिया। श्याम सिंह की चीख से घोड़ा बिदका और राम सिंह ने पीछे पलट कर देखा। देखा कि श्यूं श्याम सिंह को घसीट रहा है। कोई और जैसा होता तो शायद डर कर भाग जाता। लेकिन, वे डर कर नहीं भागे। बस, लाठी उठाई और टूट पड़े श्यूं पर। ले दनादन, ले दनादन। राम सिंह मजबूत काठी के आदमी थे। श्यूं सह नहीं पाया उनकी लाठी की मार। दहाड़ मार कर झाड़ियों में घुस गया। राम सिंह ने बुरी तारह घायल श्याम सिंह को उठा कर घोड़े की गून पर बैठाया और 6-7 मील दूर गांव की ओर वापस लौट पड़े। गांव में ही देशी दवा-दारू की। श्याम सिंह के घाव भर गए और कुछ समय बाद वे ठीक हो गए। श्यूं से भिड़ने वाले रमदा और उसके पंजों से बच कर आए श्याम सिंह पूरी उम्र जिए।

माल-ककोड़ के श्यूं-बाघों के तो इतने किस्से हुए कि आप पूरी रात सुनते रह जाएंगे। आदमी और जंगली जानवरों की जिंदगी की लड़ाई ठैरी। जो जीत गया, जी गया। उन दिनों वहां घनघोर वन थे और वनों में हर तरह के जंगली जानवर थे सूअरों से लेकर हिरन और श्यूं-बाघ तक। गांव के लोग जानवर चराने जंगल जाते और श्यूं कई बार वहीं किसी गाय-भैंस का शिकार कर देता। बस, यहीं से दुश्मनी ठन जाती। गांव में दो-एक भरवां बंदूकें होती थीं। उन्हीं से कई बार रात-बिरात घात लगा कर लोग श्यूं-बाघ पर फायर कर देते। अक्सर वह घायल हो जाता और पालतू जानवरों या आदमी का शिकार करने लगता। बूढ़े बाघ भी पालतू जानवरों को मारते या आदमखोर हो जाते। लोग कहते थे, कुछ लोगों को तो जंगल में तरूड़ खोदते-खोदते खाड़ (गड्ढ़ा) में ही श्यूं ने दबोच लिया था।

लेकिन, रहना तो उन्हीं के बीच था। क्या करते? याद करके दुखी होते रहते। एक ही बात ध्यान में कि इस दुश्मन ने मेरे इतने जानवर मारे या इलाके के इतने लोग मारे। श्यूं-बाघ मारना जुर्म था। जुर्माना और सजा हो सकती थी। इसलिए गांव के लोगों ने श्यूं-बाघ से छुटकारा पाने का अपना अलग रास्ता निकाल लिया। वे ‘जिबाला’ सिलाने लगे। गजब की चीज थी, जिबाला। हम बच्चों ने उसका छोटा नमूना बनाना सीख लिया था। बड़ों ने ही सिखाया। आलू, पिनालू के खेतों में भी सौल मारने के लिए जिबाला सिलाते थे। वही बड़े आकार में श्यूं मारने के लिए बनाया जाता। जिबाले में तिकोन की तरह तीन मजबूत लट्ठे बांधे जाते। बीच में डंडियां और पटरे बांधते। एक मजबूत लट्ठा त्रिकोण के सिरे में फंसाया जाता। उसके पीछे मजबूत डोरी के साथ एक गिल्ली बांधी जाती। उस गिल्ली को फंसाने की ‘किदल’ यानी युक्ति में ही जिबाले का असली हुनर छिपा होता था। जिबाले के पूरे तिकोन को आगे से उठा कर, उसे पीछे तक जा रहे मजबूत लट्ठे के नीचे टेक पर टिकाते, तिकोन की पीठ पर भारी-भरकम पत्थर रखे जाते और पीठ पर बंधी गिल्लियों के बीच ऊपरी डंडे की गिल्ली फंसा दी जाती। इस तरह कि नीचे की गिल्ली पर मारे हुए जानवर से बंधी रस्सी अगर जिबाले के भीतर से जरा भी खींच दी जाती तो जिबाला अपने पूरे वजन के साथ धम्म से जमीन पर आ गिरता। जिबाला सिलाने वाले उसके चारों ओर हलका गड्ढा-सा बना देते और श्यूं के मारे हुए जानवर का बचा-खुचा हिस्सा निचली गिल्ली के सहारे लटका देते। रात को श्यूं दबे पांव अपने मारे हुए शिकार के पास आता। अगर आदमी की कुड़बुद समझ गया तो वापस लौट जाता। लेकिन, अगर भूखा हुआ और शिकार का मोह नहीं छोड़ पाया तो धीरे से जिबाले के नीचे जाकर शिकार को खींचता और दब कर खुद शिकार हो जाता।

…जारी रहेगा….

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11 Thoughts to “अब कहां रहे वैसे श्यूं-बाघ”

  1. कुमायूनी किस्सागोई का बेहतरीन अंदाज़ | जैसे पढ़ते पढ़ते अपने बचपन और पहाड़ों की याद आ गई ठैरी | इन्तेजार है आगे के किस्सों का और अपना उत्तराखंड ने भी ग़ज़ब का काम किया ठैरा हम तक ये पहुचा कर के !

  2. श्यूं बाघ के विषय में अच्छी जानकारी दी..

  3. हमारे सोर की तरफ इसे कुकुरिया बाघ कहने वाले ठैरे, नान्छना बड़ा आतंक रहने वाला हुआ, हमारे भोटिया कुकुर पर चार बार अटैक किया ठैरा बाघ ने, लेकिन उसके गले में बाज्यू ने पट्टा लगवाया था, जिससे वह हर बार बच गया। सुबेरे दौड़ने जाने वाले हुये तो कई बार गाड़ से पानी पीकर लौटते हुये तो खुद भी देखा ठैरा, कई बार कितनी ही ठुलईजा, काकि को लुहुलुहान देखा-सुना भी, अब तो बाघ दिखा करके सुने भी भौत दिन हो गये हो……….आपके इस लेख को पढ़कर बचपने के वह दिन भी याद आये जब ईजा सुलाते समय डराती थी, “पड़ जा ईजा, हाऊ ऐ जाओ”…हम भी डरते थे, क्योंकि हमने उस हाऊ को देखा और कई बार सुना भी था……….अब क्या कहकर डराये?

  4. bahut badiya jankaari hai …..jai uttrakhand ….apna uttrakhand..

  5. विकास बहुगुणा

    देवेंद्रज्यू दिल जीत लिया आपने…वाकई कूमाऊंनी किस्सागोई का बेहतरीन उदाहरण…शैलेश मटियानी और शेखर जोशी वाली पांत में ही ठैरे हमारे लिए आप तो…

  6. विकास जी आपको श्यूं-बाघ भाये, मेरी कलम का उत्साह बढ़ा। मटियानी जी और शेखर जोशी जी जैसे वट वृक्षों की छांव में कलम चले, इससे बड़ा सौभाग्य और क्या हो सकता है। … वैसे सभी साथी मुझे देवेनदा कहते हैं। आप भी कहिए ना !

  7. निपुण जी अगले दो किस्से कैसे लगे? बचपन से मन में ये श्यूं-बाघ लेकर घूम रहा हूं, आप जैसे कथा रसिकों को वे अच्छे लग रहे हैं, इससे मेरी कलम और तेज चलेगी। इनमें से ज्यादातर बातें सच्ची हैं। अभी तो आप एक से एक और मजेदार किस्से पढ़ेंगे। पढ़ते रहिएगा….

  8. घिंघारू जी, अब तो श्यूं-बाघों की घटती संख्या देख कर डर लगता है! देखा होगा आपने भी विज्ञापन में वह नानु-नान बाघ का बच्चा, शिबौ-शिब…

  9. समीर लाल जी, आपकी इस बात ने मेरी कलम की ताकत बढ़ा दी। आभार।

  10. देवेनदा के किस्से पढने में बहुत आनन्द आ रहा है.. श्यू-बाघ के बाद अब किसी अन्य धारावाहिक का इन्तजार कर रहा हूँ..

  11. पहाड़ी भाई, मेरे कुछ और किस्से पढ़िए न ‘अपना उत्तराखंड’ और ‘मेरी कलम’ (http://dmewari.merapahad.in) में।

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