ओ पार के टिकराम और ए पार की पारभती

[पहाड़ों में बाघ और मानव एक साथ रहते आये हैं। इन बाघों को कुकुर बाघ, श्यूँ बाघ के नाम से भी जाना जाता रहा है। कभी कभी बाघ आदमखोर भी हो जाते हैं। नरेन्द्र सिंह नेगी जी ने "सुमा हे निहोणिया सुमा डांडा ना जा"  गीत में भी इसी तरह की एक घटना का जिक्र किया है। देवेन्द्र मेवाड़ी जी अपने गांवों के किस्से हमें सुनाते रहे हैं। हाल ही में उनकी तुंगनाथ यात्रा का रोचक वर्णन भी काफी लोगों ने पसंद किया। आजकल वह हमें अपने गांव के श्यूँ बाघों के किस्से सुना रहे हैं। पिछ्ले भाग में आपने बकरी चोरों के बारे में पढ़ा इससे पहले नेपाली जंग बहादुर का किस्सा और साहसी राम सिंह का किस्सा  पढ़ चुके हैं। प्रस्तुत है ऐसे ही रोचक किस्सों की चौथी कड़ी…. : प्रबंधक]

leopard.-diedjpg लोग उस पार के पहाड़ों पर बसे कड़ैजर गांव के टिकराम रुवाली ज्यू का किस्सा सुनाते थे। कड़ैजर गांव देवगुरु पहाड़ के घने जंगलों की गोद में हुआ।…अब महराज एक दिन ऐसा हुआ बल कि टिकराम रुवाली ज्यू के गोरु-बाछ जंगल में चरने गए हुए थे। वहां उन पर श्यूं की नजर पड़ गई ठैरी। उस दुश्मन ने मारने के लिए सबसे अच्छी दुधारु गाय छांट ली। बस, उस पर झपटा और उसे चित्त मार दिया।

टिकराम पंडिज्जी ने सुना तो बौखला उठे। पकड़ा एक बांज का मोटा-मजबूत और भारी कांगा (तीखा डंडा) और पहुंच गए सीधे जंगल। गाय मरी ठैरी। श्यूं का पता नहीं। उनका गुस्सा भड़क गया। पत्थर पर खड़े होकर जोर से धाद दी- “हं रै, कहां है तू? चोरी से मेरी गाय मार दी। आ, हिम्मत है तो सामने आ”…

श्यूं सिर झुका कर सामने आ गया बल। उसे देखते ही वे चिल्लाए, “अब क्या सिर झुका कर आ रहा है? मुंह ऊपर उठा।”

श्यूं का सामने देखना और उनका दोनों हाथों को उठा कर पूरी ताकत से बांज का कांगा मारना। खोपड़ी फट कर दो हो गई बल! श्यूं वहीं ढेर हो गया।

रात-बिरात दीदी से एक और गांव की उस सैंणी (औरत) का किस्सा सुन कर तो रौंगटे ही खड़े हो जाते थे।…
गांव की चार-छह सैंणियां (औरतें) घास काटने जंगल में गई हुई थीं, बल। सब आसपास ही घास काटने लगीं। श्यूं दुश्मन छिप कर उनके पीछे लग गया। मौका पा कर एक सैंणी पर झपट पड़ा और उसे घसीट कर ले गया। बाकी सैंणियां चीखती-चिल्लातीं भाग कर वापस गांव पहुंच गईं। वहां रो-धो कर लोगों को बताया। कुछ लोग इकट्ठा होकर, लाठी-कुल्हाड़ियों से लैस होकर उस सैंणी को खोजने जंगल पहुंचे। शाम ढल चुकी थी। चारों ओर अंधेरा घिरने लगा। लोगों ने मशाल जला कर सैंणियों की बताई हुई जगह के आसपास उस सैंणी के कपड़े और शरीर के बचे-खुचे टुकड़े ढूंढना शुरु किया। सभी जानते थे कि अब तक तो उस बेचारी को श्यूं चबा-चुबू कर चट कर चुका होगा। लेकिन, न खून के निशान दिखे, न फटे कपड़े और न शरीर के टुकड़े। यहीं से तो घसीट कर ले गया था श्यूं। तो, फिर उस सैंणी का हुआ क्या?

तभी जंगल के सन्नाटे में कुछ दूर से दर्द भरी आवाज आई, “अरे, कोई छा, बचावा मैंकें, मैं ज्यूनी छों!” (कोई है, बचाओ मुझे, मैं जीवित हूं)

आवाज सुन कर सभी धक्क से रह गए। यह कौन है? किसकी आवाज है इस सुनसान जंगल के इस अंधेरे में?
लोग सोच ही रहे थे कि फिर आवाज आई, “अरे, मैं छौं, पारभति (पार्वती), ज्योंनी छौं मैं। आओ, ले जाओ मुझे…” कोई कातर आवाज में पुकार रहा था।

दो-एक आदमियों से रहा नहीं गया। बोले, “उसकी आत्मा आवाज दे रही है शायद। उसे तो श्यूं कब के जो खा चुका होगा…”

किसी ने उनकी हां मैं हां मिलाई। कहा, “भूत-परेत की आवाज लगती है। बेचारी की अकाल मौत हुई है, तभी तो…”
डर कर वे लोग गांव लौट गए। वहां बाकी लोगों से कहा। कुछ लोगों का मन नहीं माना। उन्होंने साथ की सैंणियों से फिर पूछा। सैंणियों ने कहा कि खुद उन्होंने देखा। उनकी आंखों के सामने उसे श्यूं ने पंजों से दबोचा और घसीट कर ले गया।

“तब कहां बचती,” उन लोगों ने कहा, “सुबह ज्यादा लोग चलेंगे। हल्ला-गुल्ला मचा कर खोजेंगे। कुछ तो मिलेगा? कपड़े जो क्या खा जाएगा श्यूं? वे तो मिलेंगे ही।”

गए, सुबह वे लोग हथियार लेकर, ढोल-कनिस्तर बजाते हुए वहां गए। चारों ओर फिर ढूंढा। और, तभी फिर वही कातर आवाज आई, “अरे यहां हूं मैं। मुझे ले जाओ…बचाओ…बचाओ मुझे!”

गांव की चार-छह सैंणियां (औरतें) घास काटने जंगल में गई हुई थीं, बल। सब आसपास ही घास काटने लगीं। श्यूं दुश्मन छिप कर उनके पीछे लग गया। मौका पा कर एक सैंणी पर झपट पड़ा और उसे घसीट कर ले गया। बाकी सैंणियां चीखती-चिल्लातीं भाग कर वापस गांव पहुंच गईं। वहां रो-धो कर लोगों को बताया। कुछ लोग इकट्ठा होकर, लाठी-कुल्हाड़ियों से लैस होकर उस सैंणी को खोजने जंगल पहुंचे। शाम ढल चुकी थी। चारों ओर अंधेरा घिरने लगा। लोगों ने मशाल जला कर सैंणियों की बताई हुई जगह के आसपास उस सैंणी के कपड़े और शरीर के बचे-खुचे टुकड़े ढूंढना शुरु किया। सभी जानते थे कि अब तक तो उस बेचारी को श्यूं चबा-चुबू कर चट कर चुका होगा।

“हैं, दिन में भी? दिन में तो आत्मा की आवाज नहीं आनी चाहिए। चलो, वहां जाकर देखते तो हैं,” किसी आदमी ने कहा।

“हां-हां चलो” कह कर सब लोग उस तरफ गए कि आखिर आवाज आ कहां से रही है? 

और, वहां जाकर देखते क्या हैं कि पारभती तो जि़दा है! उसने एक ऊंचे पेड़ के दो-फांगे में बैठ कर तने को कस कर पकड़ा हुआ था।

पास जाने पर वह जोर से चिल्लाई, “पेड़ की जड़ में श्यूं बैठा हुआ है। जरा देख कर आना…”

लोगों ने देखा पेड़ की जड़ पर सचमुच श्यूं बैठा हुआ था। वह कभी उनकी ओर देख रहा था और कभी ऊपर पेड़ में बैठी पारभती की ओर। अब क्या किया जाए। लोगों ने ढोल और कनिस्तर जोर-जोर से पीटना शुरू किया और ‘हुई-हुई’ की आवाजें लगा कर श्यूं को भगाने की कोशिश की। लेकिन, रात भर पेड़ पर से शिकार के उतरने का इंतजार करने वाला वह भूखा श्यूं वहां से नहीं हिला। तब लोगों ने आग जलाई। जलती हुई लकड़ियां उसकी ओर फैंकीं। आखिर हो-हल्ला सुन कर और आग से डर कर श्यूं वहां से हट कर दूर जाकर बैठ गया। तब एक-दो आदमी हिम्मत करके पेड़ के पास पहुंचे। श्यूं ने गुस्से में पेड़ को नाखूनों से बुरी तरह नोचा हुआ था। कई जगह शायद दांतों से भी पपोड़ दिया था।

एक आदमी रस्सी लेकर पेड़ में चढ़ा और दो-फांगे पर पहुंच कर रात भर डर से कांपती, भूखी-प्यासी पारभती के पास पहुंचा। उसने धोती से अपने-आप को पेड़ के तने पर कस कर बांधा हुआ था ताकि डर से बेहोश होकर नीचे न गिर पड़े। वह आदमी पारभती को पीठ पर बांध कर नीचे उतार लाया और लोग हो-हल्ला मचा कर उसे गांव में वापस ले आए।

लेकिन, हुआ क्या? श्यूं तो उसे घसीट कर ले गया था? तो, खाया क्यों नहीं? उसका खून तक नहीं पिया?
जो हुआ, वह पारभती ने गांव वालों को बताया।

उसने बताया, ‘श्यूं मुझे घसीट कर उस पेड़ के पास तक ले गया होगा। वहां पर थोड़ा मैदान जैसा है। मैं बेहोश थी। होश आया तो देखा मुझे उस पेड़ के तने पर टिका कर, वह अपने पंजों से कुतक्याली (गुदगुदी) जैसी करके वह वापस पीछे को दौड़ रहा था। दूर जाकर वह पलटा और जमीन पर पंजे फैलाए। उन पर मुंह रख कर इधर-उधर सिर हिलाते हुए मेरी ओर देखा। पूंछ हिला कर फिर तेजी से दौड़ता हुआ मेरे पास आया और मुझे पंजों से पकड़ कर इधर-उधर हिलाने लगा। उसे देख कर मैं फिर बेहोश हो गई। होश आया तो देखा वह फिर वापस दौड़ रहा था। मेरे साथ वह बिल्ली और चूहे का खेल, खेल रहा था।…थोड़ी देर खेल खेलता, फिर बैठ कर मेरा हांड-मांस चबाता।’

‘जब तीसरी बार होश में आई और उस दुश्मन को दूसरी ओर दौड़ते हुए देखा तो मुझमें हिम्मत आ गई। मन ने कहा, पारभती तू बच सकती है। सारा आंग (शरीर) डर के मारे थर-थर, थर-थर कर रहा था। लेकिन, मैंने हिम्मत जुटाई और पेड़ में चढ़ गई। लगता था उस दुश्मन ने अब नीचे घसीटा, अब नीचे घसीटा। ऊपर दो फांगे पर पहुंच कर मैंने कमर से धोती खोली और उससे अपने आप को तने के साथ बांध लिया कि डर से बेहोश होकर गिर न पड़ूं।’
‘उधर वह असत्ती दूसरे किनारे पर पहुंचा। पंजों पर सिर रख कर खेल-खेलने लगा तो देखा-पेड़ के नीचे तो कुछ है ही नहीं। बस, वह बौखला कर दहाड़ता हुआ वापस पेड़ की जड़ की तरफ दौड़ा। इधर-उधर सूंघा कि कहां भाग गई। कुछ पता नहीं लगा। गुस्से में ‘आऊ sss आऊ sss’ करके बुरी तरह दहाड़ता रहा। फिर पेड़ को सूंध कर ऊपर की तरफ देखा तो मुझ पर नजर पड़ गई। अरे, कैसा जो बौला (बौरा) गया ठैरा वह! आसमान की ओर उछाल मारने लगा। गुस्से से पागल होकर दांतों से पेड़ की छाल पपोड़ दी, नाखूनों से उसे चीरने लगा। ऐसी ‘आऊ ९९’ करता था कि मेरा कलेजा बैठ जाता था।’

‘कुछ देर बाद मैंने आदमियों का बोलना जैसा सुना। मशाल की आग दिखाई दी। तब मैंने जोर से आवाज लगाई, “अरे कोई छा? बचा मैं कैं!” लेकिन, शायद किसी ने नहीं सुना। आदमियों की आवाज सुन कर नीचे बैठा वह दुश्मन उस समय चुप हो गया। सुबह फिर आप लोग आ ही गए।’

दीदी कहती थी, कई महीनों तक वह श्यूं रात को उस सैंणी के मकान तक आता रहा, बल। उसके मुंह का शिकार जो छूटा ठैरा।

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3 Thoughts to “ओ पार के टिकराम और ए पार की पारभती”

  1. पारभती जैसी कितनी ही जीवट महिलाओं के किस्सों से भरा ठैरा उत्तराखण्ड। सलाम है उन सबके जज्बे को जो यह सब कुछ झेलने के बाद फिर से जंगल जाने की हिम्मत कर पाती थीं। अब तो दो कमरे के मकानों की साफ-सफाई में ही सैंणियों की कमर दर्द हो जा रही ठैरी… 😀 😀

  2. मेवाड़ी जी की कलम ने जंगल का वह रोमांच और पारभती की घबराहट जीवंत कर दी… कृपया आप लिखते रहें, हमें बहुत अच्छा लगता है.

  3. हलिया

    अहा! भौत ही आनंद आ गया हो महाराज्। मेवाडी जी को भौत-भौत धन्यबाद ठैरा ।

    हलिया

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