रंगीली चंगीली पुतई जसी

यदि आपको अपनी श्रीमती जी को सुबह सुबह जगाना हो तो आप क्या करेंगे? यदि आपको कुछ ना सूझ रहा हो तो एक तरीका है कि आप कोई गाना गाएं और ऐसा गाना गोपाल बाबू गोस्वामी का रंगीली चंगीली पुतई जसी से बेहतर क्या हो सकता है। इसमें एक व्यक्ति सुबह सुबह अपनी सोई हुई पत्नी को जगा रहा है। वह इतनी खूबसूरत उपमाओं से अपनी पत्नी को संबोधित कर रहा है और उसकी मिन्नतें कर रहा है कि श्रीमती जी भी मन ही मन मुस्कुरा रही होंगी। गीत का…

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अल्खते बिखौती मेरी दुर्गा हरे गे

गोपाल बाबू गोस्वामी का एक मशहूर गाना है “अल्खते बिखौती मेरी दुर्गा हरै गे”। इस गाने में एक मेले में गये पति-पत्नी के बीच की नौंक-झौंक है। द्वाराहाट के पास एक जगह है स्याल्दे। य़हां वैसाख माह की पहली तिथि को प्रसिद्ध शिव मंदिर विभाण्डेश्वर में एक मेला लगता है जिसमें दूर-दूर गावों से लोग आते हैं। इसी मेले का नाम है बिखौती मेला। इसी मेले का वर्णन इस गीत में किया गया है। एक पति-पत्नी इस मेले में आये हुए हैं वहां पत्नी अपनी पुरानी सहेलियों के मिल जाने…

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रुपसा रमोती घुंघुर नि बाजा छम….

जीजा साली की मीठी छेड़-छाड़ अन्य लोकगीतों की तरह ही उत्तराखंड के लोकगीतों में मिलती है। चाहे आप फिर "ओ भीना कस के जानो द्वारहाटा" देख लें या फिर "रुपसा रमौती"। "रुपसा रमौती" गोपाल बाबू गोस्वामी द्वारा गाया एक बहुत प्रसिद्ध गीत है। यह गीत भी हमें दो रूपों में मिलता है। एक पुराना वाला जो कि पुरानी कैसेटों में मिलता है और दूसरा नया संस्करण जो वी.सी.डी. में अनेक दृश्यों के साथ मिलता है। जहाँ पुराने वाले गीत में एक मिठास का अनुभव होता है वहीं नये वाले गीत…

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जै मैय्या दुर्गा भवानी, जै मैय्या..

लोकगीतों के साथा साथ गोपाल बाबू गोस्वामी ने कई भजन भी गाये हैं। उनका एक बहुत ही लोकप्रिय भजन है “जै मैय्या दुर्गा भवानी,जै मय्या”.आज उसी भजन से आपका परिचय कराते हैं। इसमें उत्तराखंड में स्थित देवी के बहुत से मंदिरों का भी जिक्र हुआ है। गोपाल बाबू के इसी तरह के गीतों को सुनकर ही शायद किसी ने उन्होनें “उत्तराखंड का चंचल” (चंचल देवी के भजन गाने वाले प्रसिद्ध गायक हैं) कहा होगा। गीत का भावार्थ : माँ तू ही दुर्गा है, तू ही काली है। तेरी महिमा निराली…

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भुरु भुरु उज्वाऊ हैगो

पहाड़ों की सुबह कितनी सुहानी होती है इसको शब्दों में वर्णित करना लगभग असंभव है। बर्फ से ढकी चोटियों पर जब सूरज की किरणें पड़ती हैं तो वह दृश्य देखने लायक होता है। पक्षी चहचहाने लगते हैं, स्त्रियां अपने काम में लग जाती हैं, गोठ में गोरु-बाछ (गाय-बछ्ड़े) अड़ाट करने लगते हैं और ऐसे ही एक सुबह के दृश्यों को गोपाल बाबू गोस्वामी ने अपने एक सुन्दर गीत में पिरोया है। इस गीत में आप प्रात: काल सुनाई देने वाली ध्वनियों पर ध्यान दें-मुरली की तान है, शिव के डमरू…

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कैले बजै मुरूली… बैणा

“कैले बजै मुरुली…. बैंणा ऊंची ऊंची डान्यूँ मा” गोपाल बाबू गोस्वामी द्वारा गाया हुआ एक मार्मिक विरह गीत है। यह गीत एक ओर जहां एक विरहिणी की दशा का वर्णन करता है वहीं उत्तराखंड की उस स्थिति के बारे में भी बताता है जहां अधिकांश पुरुष सेना में काम करते हैं और उन्हें अपनी नयी-नवेली पत्नियों को छोड़ कर युद्ध-भूमि में जाना पड़ता है। भावार्थ : एक युवती जिसका पति युद्ध-भूमि में गया हुआ और उसका कई दिनों से कोई समाचार नहीं आया है जब वह पर्वतों की ऊंची चोटियों…

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गिरीश तिवारी ‘गिर्दा’

आजीविका चलाने के लिए क्लर्क से लेकर वर्कचार्जी तक का काम करना पड़ा। फिर संस्कृति और सृजन के संयोग ने कुछ अलग करने की लालसा पैदा की। अभिलाषा पूरी हुई जब हिमालय और पर्वतीय क्षेत्र की लोक संस्कृति से सम्बद्ध कुछ करने का अवसर मिला। प्रमुख नाटक, जो निर्देशित किये- ‘अन्धायुग’, ‘अंधेरी नगरी’, ‘थैंक्यू मिस्टर ग्लाड’, ‘भारत दुर्दशा’। ‘नगाड़े खामोश हैं’ तथा ‘धनुष यज्ञ’ नाटकों का लेखन किया। कुमाउँनी-हिन्दी की ढेर सारी रचनाएँ लिखीं । गिर्दा ‘शिखरों के स्वर’ (1969), ‘हमारी कविता के आँखर’ (1978) के सह लेखक तथा ‘रंग डारि दियो हो अलबेलिन में’ (1999) के संपादक हैं तथा ‘उत्तराखण्ड काव्य’ (2002) के रचनाकार हैं। ‘झूसिया दमाई’ पर उन्होंने अपने सहयोगियों के साथ एक अत्यन्त महत्वपूर्ण संकलन-अध्ययन किया है। उत्तराखण्ड के कतिपय आन्दोलनों में हिस्सेदारी की। कुछेक बार गिरफ्तारी भी हुई।

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