तारा चन्द्र त्रिपाठी

अपने छात्रों से बहुत स्नेह- साहचर्य मिला और निरन्तर मिल रहा है। उनके साथ तथा अकेले भी उत्तराखण्ड के प्राचीन इतिहास की खोज में व्यापक पदयात्राओं से अपने अंचल को समझने का अवसर मिला। अनेक शोधपूर्ण लेखों के साथ एक पुस्तक ‘उत्तराखण्ड का ऐतिहासिक भूगोल’ तथा ‘ऑखिन देखी’ ;ललित निबन्ध एवं यात्रा संस्मरणद्ध प्रकाशित। ‘स्थान-नाम व्युत्पत्ति और ऐतिहासिकता’, तथा ‘सिरफिरों को’ (काव्य संकलन) प्रकाशनाधीन।

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राम सिंह

लखनऊ में अपने सहपाठी लेखक मित्रों के प्रेरणा से स्वतंत्र भारत, नवजीवन, त्रिपथगा, ग्राम्या इत्यादि पत्र-पत्रिकाओं में लेख लिखे। तबसे सिलसिला चलता रहा। 1963 में सरकारी सेवा में प्रवेश और जून 1997 को राजकीय महाविद्यालय के प्राचार्य पद से सेवानिवृत्त। लोक जीवन, पुरातत्व, संस्कृति, भाषा ;बोलीद्ध, स्थानीय इतिहास पर काफी लिखा है। पं. नैनसिंह यात्रा साहित्य तथा चम्पावत के जन इतिहास पर ‘रागभाग काली कुमाऊं’ पुस्तकें प्रकाशित। सुभाष बोस के सैनिकों के अनुभव पर आधारित पुस्तक, नई दिल्ली से प्रकाशनाधीन। कृषि तथा ग्रामोद्योग शब्दावली, भारत तथा अन्य पुस्तकों का लेखन जारी है। देश की राष्ट्रीय एकता हेतु अपने विचारों को रामजनम परजा के उप नाम से पत्र-पत्रिकाओं में लेखन। हिन्दू-मुस्लिम सौहार्द के लिए समर्पित रहने की उत्कट अभिलाषा है। अपने स्वतंत्र विचारों पर मजबूती से डटे रहने के इरादे से सरकारी नौकरी से निकाले जाने की स्थिति में अपने आर्थिक स्वावलम्बंन हेतु 1976 में स्टील फर्नीचर का उद्योग ‘लौह लक्ष्मी’ स्थापित किया। इससे प्रेरणा लेकर इस समय समूचे पिथौरागढ़ जनपद में बीसियों इकाइयों में स्थानीय उद्यमी कार्य कर रहे हैं। इसे मैं अपनी उपलब्धि समझता हूं कि मेरे काम से प्रेरणा लेकर स्थानीय उद्यमियों में भी उद्योग स्थापित करने की हिम्मत बँधी।

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यशोधर मठपाल

तूरीनो (इटली) में 1995 में गुफाकला के विश्व सम्मेलन की अध्यक्षता, वहीं इंटरनेशनल फैडरेशन आफ रॉक आर्ट आर्गनाइजेशन द्वारा मानद डिप्लोमा। 1999 में पुर्तगाल में एशिया-प्रशान्त क्षेत्र के सत्र की सह अध्यक्षता। 2001 में मेजो दे साइन्सेज, पेरिस द्वारा आमंत्रित आचार्य। 1959 में बनारस विश्वविद्यालय द्वारा चित्रकला में प्रान्तीय प्रथम पुरस्कार स्वरूप स्वर्णपदक। 1985 में कन्हैयालाल प्राग दास स्मारक समिति द्वारा कलाश्री। 2000 में अखिल गढ़वाल सभा देहरादून व उत्तरायणी मेला समिति द्वारा अभिनन्दन। उत्तरांचल की प्रथम गणतंत्रदिवस संध्या पर मुख्यमंत्री द्वारा प्रशस्तिपत्र व 25000 रु. का पुरस्कार। प्रागैतिहासिक पुरातत्व व लोक कला संस्कृति पर 19 मौलिक पुस्तकों का सृजन। 200 से अधिक शोध प्रपत्र, कुछ कविता संग्रह भी प्रकाशित विन्ध्यांचल, केरल, आन्ध्र, कनार्टक, उत्तर प्रदेश व उत्तरांचल में 400 से अधिक गुफाओं से आदि मानव की कला का शोधन। कई सहस्र चित्रों का सृजन, देश-विदेशों में 25 एकल चित्र प्रदर्शनियाँ, 15 विश्व सम्मेलनों में भागीदारी। उत्तराखण्ड की काष्ठ कला पर विशेष कार्य।

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मदन चन्द्र भट्ट

1966 में टकाना रोड पिथौरागढ़ में सुमेरु संग्रहालय की स्थापना. उत्तराखण्ड के इतिहास पर नैनीताल, पौड़ी, कोटद्वार, श्रीनगर, गोपेश्वर और बदरीनाथ में ऐतिहासिक प्रदर्शनियों का आयोजन। ‘हिमालय का इतिहास’ 1 और 2 का प्रकाशन, ‘कुमाऊँ की जागर कथायें’। 4. जाख गाँव में अपना पैतृक भवन सरस्वती शिशु मंदिर की स्थापना के लिए दान।

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रवीन्द्र सिंह बिष्ट

गुजरात में एक विशिष्ट हड़प्पाकालीन नगर के अवशेषों की खुदाई। हरियाणा में भी एक हड़प्पा-कालीन तथा पूर्ववर्ती व परवर्ती संस्कृतियों की खोज। 3. बिहार में प्राचीन प्रसिद्ध नालन्दा वि.वि. में उत्खनन द्वारा पूर्णवर्मा निर्मित मंदिर में प्राचीन भित्ति चित्रों का अनावरण।

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कांति प्रसाद नौटियाल

प्रोफेसर पद के बाद डा. राममनोहर लोहिया अवध विश्वविद्यालय तथा हे.न. बहुगुणा गढ़वाल विश्वविद्यालय के कुलपति पद पर नियुक्त। यू.जी.सी. इमेरिटस प्रोफेसर। वर्तमान में शिमला के भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान में फैलो। उत्तराखण्ड के इतिहास को पुरातत्व की परिधि में परीक्षण करने का सर्वप्रथम प्रयास। पुरातात्विक उत्खननों द्वारा उत्तराखण्ड की सभ्यता व संस्कृति पर नया प्रकाश। पुरातत्व तथा इतिहास पर किताबें और शोध पत्र प्रकाशित।

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धर्म पाल अग्रवाल

1958 में एक्सप्लोरेशन एसिस्टेंट के रूप में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण में काम करना शुरू किया। नौकरी व अध्ययन जारी रखते हुए 1972 में राष्ट्रीय भौतिकी प्रयोगशाला, अहमदाबाद में असिस्टेंट प्रोपफेसर नियुक्त हुए और 1993 में विभाग के चेयरमैन पद तक पहुंचे। उच्च कोटि के शोधकार्य के कारण आप अंतर्राष्ट्रीय स्तर के पुरातत्वविद् माने जाते हैं। अब तक अनेक पुरस्कारों व पदकों से नवाजे जा चुके हैं। विज्ञान सम्बंधी अनेक पत्रिकाओं से सम्बद्ध हैं। अमेरिका व जापान सहित विश्व के कई देशों के विश्वविद्यालयों में शोधवृत्ति प्राप्त की और व्याख्यान दिए। अब तक लगभग 230 शोधपत्र तथा 14 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। सेवानिवृत्ति के बाद आप पुनः अपने पैतृक नगर अल्मोड़ा वापस लौट आए और अब यहीं रह कर उत्तराखण्ड के उत्थान के लिए सक्रिय हैं।

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