उत्तराखंडी लोक गायक पर्यावरण को बचाने, पेड़ों को ना काटने का संदेश देते हुए लोकगीत गाते रहे हैं। ऐसे ही कुछ गीत हम पहले ही आपको सुना चुके हैं जैसे आवा दिदा भुलौं आवा, नांग धारति की ढकावा , डाळि बनबनी लगावा या डाल्यूं ना काटा चुचो डाल्यूं ना काटा, या फिर आज यो मेरी सुणो पुकारा, धात लगुंछो आज हिमाला । आज नरेन्द्र सिंह नेगी जी द्वारा गाये गये पर्यावरण संरक्षण और वृक्षारोपण के महत्व को समझाते हुए एक और गीत को प्रस्तुत कर रहे हैं। इस गाने में…
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आवा दिदा भुलौं आवा, नांग धारति की ढकावा , डाळि बनबनी लगावा
वनों पर मानव समाज की निर्भरता हमेशा से ही रही है, लेकिन बढते जनसंख्या के दवाब और औद्यौगिकरण के लिये जंगलों के अनियंत्रित दोहन से असन्तुलन की चिन्ताजनक स्थिति पैदा हो चुकी है। इस समय “ग्लोबल वार्मिंग ” और अन्य पर्यावरणीय मुद्दों पर अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर गम्भीर विचार-विमर्श चल रहा है लेकिन आम लोगों की सहभागिता के बिना पर्यावरण संरक्षण का कोई भी प्रयास सफल हो पायेगा ऐसा सोचना मूर्खता ही कहा जायेगा। उत्तराखण्ड की भौगोलिक स्थिति मध्य हिमालय के लिये बहुत महत्वपूर्ण और नाज़ुक है और इस इलाके के…
Read Moreडाल्यूं ना काटा चुचो डाल्यूं ना काटा
उत्तराखण्ड के लोगों के लिये वन बहुत महत्वपूर्ण हैं और इनका संरक्षण यहां की संस्कृति का हिस्सा रहा है। सरकार द्वारा चलाई जा रही वनसंरक्षण और वृक्षारोपण की योजनाएं अपने उद्देश्य में सफल नहीं हो पा रही हैं, इसका कारण प्रमुखत: यह है कि आम जनता की भावनाऐं इन योजनाओं से नहीं जुड़ पाती है। सेमिनारों और गोष्ठियों में भाषण देकर इन परियोजनाओं में सफलता मिल जायेगी, ये सोचना बेमानी है। वनसंरक्षण और वृक्षारोपण तभी सफल हो पायेगा जब इसके लाभ और अनियन्त्रित वन कटान के दुष्प्रभावों के प्रति जनता…
Read Moreआज यो मेरी सुणो पुकारा, धात लगुंछो आज हिमाला
आज जब हर तरफ लोग ग्लोबल वार्मिग की बात कर रहे हैं, वन बचाओ की बातें की जा रही हैं, हिमालय बचाओ का नारा लगाया जा रहा है वहीं गोपाल बाबू गोस्वामी ने बहुत पहले ही अपने एक गाने के माध्यम से इस संदेश को देने की कोशिश की है। अपने इस गाने में उन्होने हिमालय, पशु-पक्षी, पेड़ों द्वारा लगायी जा रही आभासी आवाजों के माध्यम से पर्यायवरण असंतुलन का एक चित्र प्रस्तुत किया है। भावार्थ : आज आकाश-धरती तड्प रहे है, हिमालय झुलस गया है, जंगल जल रहे हैं,…
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