गौळा मां बडुळि, मेरि पैत्वाल्युं पराज

अपने मूल से उखड़ कर तो एक पौधा भी सूख जाता है, मनुष्य भला कैसे अपनी जन्मभूमि से बिछड़ कर सुखी रह सकता है। नरेन्द्र नेगी जी ने इस गाने के माध्यम से अपने पैतृक गांव और परिवार से दूर रह रहे एक प्रवासी पहाड़ी पुरुष की तड़प व्यक्त की है। शहर की तेज दौड़ती ज़िन्दगी के बीच अचानक इस पुरुष को बडुळि (हिचकी) लगती है, पैरों के तलवों में खुजली लगती है और चूल्हें की आग भरभरा कर आवाज करने लगती है। पहाड़ों में यह माना जात है कि…

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तेरि पिड़ा मां दुई आंसु मेरा भि

नरेन्द्र सिंह नेगी जी के गीतों में अन्तर्निहित भावों की सुन्दरता को आपने इससे पहले भी कई गीतों में इस साइट पर महसूस किया होगा। यही अन्तर्निहित भाव उनके गीतों अधिक सुन्दर व अर्थपूर्ण बनाते है। आज हम ऐसा ही भावनापूर्ण गीत आपके सामने लेकर आ रहा हैं। इस गीत में पहाड़ के अधिकांश विवाहित जोड़ों की तरह पति पहाड़ से बाहर जाकर नौकरी कर रहा है और स्त्री गांव में रहकर घर व खेतों की देखभाल कर रही है व परिवार का पालन-पोषण कर रही है। विरहरस से भरे…

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बोला भै-बन्धु तुमथें कनु उत्तराखण्ड चयेणुं च

उत्तराखण्ड राज्य प्राप्ति के लिये उत्तराखण्ड के लोगों ने लगभग 50 साल तक संघर्ष किया और एक बड़े अहिंसक आन्दोलन के फलस्वरूप अलग राज्य का निर्माण हुआ। पृथक राज्य निर्माण की मांग पीछे लोगों की यह अपेक्षाएं थी कि अपना राज्य और अपना शासन होगा तो दुश्वारियां कुछ कम होंगी और सामान्य जनता की इच्छानुसार एक आदर्श राज्य की स्थापना होगी। पृथक राज्य बनाने के उद्देश्य को लेकर लड़ रहे समाज में हर तबके की अपनी-अपनी प्राथमिकताएं और अपेक्षाएं थीं, उसी दौर में नेगी जी ने यह गाना लिखा। इस…

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जी रे जागि रे, जुगराज रे तू- जी रे

तेजी से बदलते भारतीय समाज में अन्य भारतीय परम्पराओं के साथ- साथ संयुक्त परिवार का ताना-बाना भी टूटता जा रहा है। कैरियर और प्रतिस्पर्धा के पीछे भागते-भागते आज का युवावर्ग अपने माता-पिता के रूप में किस अमूल्य निधि का तिरस्कार करता है, उसे आभास नहीं हो पाता। बड़े शहरों में ऐसे कई बुजुर्गों की कहानी सुनने को मिलती है जिनकी सन्तानें उन्हें अकेले छोड़कर या वृद्धाश्रम में धकेलकर बेरोकटोक, स्वतन्त्र जीवन जीने का रास्ता चुनते हैं और अन्तत: ऐसे बुजुर्ग या तो अपने नौकरों के हाथों मारे जाते हैं या…

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गरा रा रा ऐगे रे बरखा झुकि ऐगे

नरेन्द्र सिंह नेगी द्वारा गाये गये सभी गीतों में इस गाने की एक विशेष पहचान है। नेगी जी ने इस गाने के माध्यम से यह सजीव दृश्य सामने रखा है कि एक छोटे से गांव में अप्रत्याशित रूप से बारिश की बूंदे गिरने लगे तो सामान्य जीवन किस तरह अस्त-व्यस्त हो जाता है। आमतौर पर वर्षाऋतु पर आधारित गाने श्रंगार रस, विरह वेदना या प्राकृतिक सुन्दरता को प्रदर्शित करते हैं लेकिन नेगी जी इस परिस्थिति में भी आम ग्रामीणों के दुख-दर्द को सामने रखने में बखूबी कामयाब हुए हैं और…

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साँस छिन आस-औलाद तुमारी हमारी डाली – झम्म

उत्तराखंडी लोक गायक पर्यावरण को बचाने, पेड़ों को ना काटने का संदेश देते हुए लोकगीत गाते रहे हैं। ऐसे ही कुछ गीत हम पहले ही आपको सुना चुके हैं जैसे  आवा दिदा भुलौं आवा, नांग धारति की ढकावा , डाळि बनबनी लगावा या डाल्यूं ना काटा चुचो डाल्यूं ना काटा, या फिर आज यो मेरी सुणो पुकारा, धात लगुंछो आज हिमाला । आज नरेन्द्र सिंह नेगी जी द्वारा गाये गये पर्यावरण संरक्षण और वृक्षारोपण के महत्व को समझाते हुए एक और गीत को प्रस्तुत कर रहे हैं। इस गाने में…

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धार मां कु गेणुं पार देख ऐ गे

इस साइट पर आप इससे पहले नरेन्द्र सिंह नेगी जी का गाना “मुल-मुल कैकु हैंसणि छै तू” सुन चुके हैं, जिसमें एक युवती जंगलों के पौधों को अपना मित्र मानते हुए उनसे अपने दिन की बात कह रही है। इसी तरह जंगलों में अपने मवेशियों को चराने गये दल के एक पुरुष और महिला के बीच हुई बातचीत पर आधारित है नेगी जी का यह गाना। रुमुक (शाम का धुंधलका) आ जाने पर जब सभी जानवर घरों की तरफ लौट पड़े तो लछी नाम की महिला अपनी गाय को ढूंढते…

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