अपने मूल से उखड़ कर तो एक पौधा भी सूख जाता है, मनुष्य भला कैसे अपनी जन्मभूमि से बिछड़ कर सुखी रह सकता है। नरेन्द्र नेगी जी ने इस गाने के माध्यम से अपने पैतृक गांव और परिवार से दूर रह रहे एक प्रवासी पहाड़ी पुरुष की तड़प व्यक्त की है। शहर की तेज दौड़ती ज़िन्दगी के बीच अचानक इस पुरुष को बडुळि (हिचकी) लगती है, पैरों के तलवों में खुजली लगती है और चूल्हें की आग भरभरा कर आवाज करने लगती है। पहाड़ों में यह माना जात है कि…
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मोटरूंको सैणुं हो यु, होटलुको खाणुं,ई डरैबरि कलैण्डरि मां
नरेन्द्र सिंह नेगी ने समाज के हर तबके की भावनाओं को अपने गानों के माध्यम से दुनिया के सामने रखा है। आइये सुनते हैं नेगी जी का एक पुराना गाना जिसमें उन्होंनें ड्राइवरों और कंडक्टरों की पीड़ा को बखूबी व्यक्त किया है। बस, गाड़ी या टैक्सी चलाने वाले ड्राइवर और कण्डक्टर किस तरह कष्ट सहते हुए भी अपने काम में लगे रहते हैं यह इस गाने से स्पष्ट होता है। इस गाने में ड्राइवरी या कण्डक्टरी करने वाला एक व्यक्ति अपने दर्द को बयान कर रहा है और अपने गांव…
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