गिरीश तिवारी ‘गिर्दा’

गिरीश तिवारी ‘गिर्दा’ (Girish Tewari ‘Girda’)

(माताः स्व. जीवंती देवी, पिताः स्व. हन्सादत्त तिवारी)

जन्मतिथि : 9 सितम्बर 1945

जन्म स्थान : ज्योली (तल्ला स्यूनरा)

पैतृक गाँव : ज्योली जिला : अल्मोड़ा

वैवाहिक स्थिति : विवाहित बच्चे : 2 पुत्र

शिक्षा : हाईस्कूल- राजकीय इंटर कालेज अल्मोड़ा

इंटर- एशडेल स्कूल, नैनीताल (व्यक्तिगत)

जीवन का महत्वपूर्ण मोड़ः 1966-67 में पूरनपुर में लखीमपुर खीरी के जनपक्षीय रुझान वाले कार्यकर्ताओं से मुलाकात।

प्रमुख उपलब्धियां : आजीविका चलाने के लिए क्लर्क से लेकर वर्कचार्जी तक का काम करना पड़ा। फिर संस्कृति और सृजन के संयोग ने कुछ अलग करने की लालसा पैदा की। अभिलाषा पूरी हुई जब हिमालय और पर्वतीय क्षेत्र की लोक संस्कृति से सम्बद्ध कुछ करने का अवसर मिला। प्रमुख नाटक, जो निर्देशित किये- ‘अन्धायुग’, ‘अंधेरी नगरी’, ‘थैंक्यू मिस्टर ग्लाड’, ‘भारत दुर्दशा’। ‘नगाड़े खामोश हैं’ तथा ‘धनुष यज्ञ’ नाटकों का लेखन किया। कुमाउँनी-हिन्दी की ढेर सारी रचनाएँ लिखीं । गिर्दा ‘शिखरों के स्वर’ (1969), ‘हमारी कविता के आँखर’ (1978) के सह लेखक तथा ‘रंग डारि दियो हो अलबेलिन में’ (1999) के संपादक हैं तथा ‘उत्तराखण्ड काव्य’ (2002) के रचनाकार हैं। ‘झूसिया दमाई’ पर उन्होंने अपने सहयोगियों के साथ एक अत्यन्त महत्वपूर्ण संकलन-अध्ययन किया है। उत्तराखण्ड के कतिपय आन्दोलनों में हिस्सेदारी की। कुछेक बार गिरफ्तारी भी हुई।

युवाओं के नाम संदेशः

हाउ-पाणिक पिन

सोचि ल्यूँ छात सोच पड़नी- को भै तु? काँ बटिक ऐ??

रूडि़नैकि जसि बर्ख सुदै – अरख-गरख, कत्त्थ गै

और उसिक सोचि ल्यूँछात- त्वे ल्हिबेरै दुनी भै

सूरज में उज्याव भै त्योर, जैघणि में तेरि रोशनी भै

ओर उसिक औकात कूँछा- तीन में, न तेर में

‘दो सोरा मुरूलिक सोर’ – भ्यार मेंन भितेर में

जाँणि कभत फ्यास्स करि घौ- हावे की त जात छु

द्वि-ज्यौंल्या मुरुलिक सोर चलण तकैकि बात छु

पर जतुक छु जेलै छु, यो- सब तेरी करामात छु

वा रे! हाउ-पाणिक पिना! तेरि लै कि बात छु

सोचि ल्यूँछा त् सोच पड़नी…..

भावार्थः

हवा-पानी का पिण्ड

सोच लाइये तो सोच पड़ते हैं- तुम कौन हो? कहां से आए हो? गर्मियों की सी बरखा- आए और चले गए। और वैसे सोचिए तो – तुम्हारे ही दम से दुनिया है। सूर्य में प्रकाश है तुम्हारा, जुगनू में तुम्हारी रोशनी है। और वैसे औकात कहें- तो तीन में न तेरह में। दो सोरों पे चलने वाली मुरूली का यह स्वर – न बाहर में, न भीतर में। जाने कहां टूट जाए यह ‘सोर’- हवा की ही तो जात है। दो साँसें चलते रहने तक की तो सब बात है। पर जो भी है, जितना भी है सब तेरी ही करामात है। वाह रे हवा-पानी के पिण्ड (मनुष्य)! तेरी क्या बात है? सोच लाइए तो सोच पड़ते हैं।….

विशेषज्ञता : लोक के विविध पक्ष, साहित्य, गीत- संगीत, जन आन्दोलन।

 

 

नोट : यह जानकारी श्री चंदन डांगी जी द्वारा लिखित पुस्तक उत्तराखंड की प्रतिभायें (प्रथम संस्करण-2003) से ली गयी है।

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2 Thoughts to “गिरीश तिवारी ‘गिर्दा’”

  1. विगत २२ अगस्त, २०१० को गिर्दा का निधन हो गया। गिर्दा एक महान व्यक्तित्व थे, एक विचार थे और विचार कभी मरते नहीं हैं। वे हमेशा लोगों के दिलो-दिमाग में जीवित रहते हैं, अपनी महानता के साथ।

    हम सभी को गिर्दा के बताये रास्ते पर चलने का संकल्प लेना होगा, यही गिर्दा को सच्ची श्रद्धांजलि होगी।

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